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इंगालं अगणिं अच्चि अलायं वा सजोइयं । न उंजेजा, न घट्टेजा नो णं निव्वावए मुणी ॥ (8)
(दशवै. 8/396) मुनि जलते हुए अंगारे, अग्नि, त्रुटित की ज्वाला (चिनगारी), ज्योति-सहित अलात है E (जलती हुई लकड़ी) को न प्रदीप्त करे (सुलगाए), न हिलाए (न परस्पर घर्षण करे या स्पर्श करे) और न उसे बुझाए। (8)
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एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाया भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेधावी णेव सयं तसकायसत्थं समारभेजा, णेवऽण्णेहिं तसकायसत्थं समारभावेजा, णेवऽण्णे तसकायसत्थं समारभंते समणुजाणेजा।
जस्सेते तसकायसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णातकम्मे त्ति बेमि।
(आचा. 1/1/6 सू. 53-55) जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह इन आरंभ (आरंभ जनित कुपरिणामों) से अनजान ही रहता है।
जो त्रसकायिक जीवों की हिंसा नहीं करता है, वह इन आरंभों से सुपरिचित/मुक्त म रहता है। यह जानकर बुद्धिमान् मनुष्य स्वयं त्रसकाय-शस्त्र का समारंभ न करे, दूसरों से 卐
समारंभ न करवाए, समारंभ करने वालों का अनुमोदन भी न करे। जिसने त्रसकाय-सम्बन्धी
समारंभों (हिंसा के हेतुओं/उपकरणों/कुपरिणामों) को जान लिया, वही परिज्ञातकर्मा (हिंसा) त्यागी) मुनि होता है।
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תכתבתפּתפתפתכתנתבתפתברפרפתפתפתכתבתבחבתפחפּתפּחפּתפתפתפתפּתפּתפֿתכתבתם
बाभ
[जैन संस्कृति खण्ड/436