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जेण रागा विरजेज, जेण सेएसु रजदि। जेण मित्तीं पभावेज तं णाणं जिणसासणे॥
(मूला. 4/268) जिस से जीव राग से विरक्त (रहित) होता है, जिससे जीव मोक्ष के प्रति राग/रुचि ॥ भी करता है, और जिससे मैत्री भावित/वर्द्धित होती है, वही जिन-शासन में 'ज्ञान' है।
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मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोऽपि दुःखितः। मुच्यतां जगदप्येषामतिमैत्री निगद्यते ॥
(है. योग. 4/118) जगत् का कोई भी जीव पाप न करे, तथा कोई भी जीव दुःखी न हो, समस्त जीव दुःख से मुक्त हो कर सुखी हों, इस प्रकार का चिन्तन करना 'मैत्रीभावना' है।
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(करुणा-भावना)
{1161) दैन्यशोकसमुत्त्रासरोगपीडार्दितात्मसु । वधबन्धनरुद्धेषु याचमानेषु जीवितम् ॥ क्षुत्तृट् श्रंमाभिभूतेषु शीताद्यैर्व्यथितेषु च। अवरुद्धेषु निस्त्रिशैर्घात्यमानेषु निर्दयैः॥ मरणार्तेषु भूतेषु यत्प्रतीकारवाञ्छया। अनुग्रहमतिः सेयं करुणेति प्रकीर्तिता॥
(ज्ञा. 25/8-10/1274-76) करुणाभावना-दीनता, शोक, त्रास व रोग की वेदना से पीड़ित; वध व बन्धन से ॐ रोके गये; जीवित की याचना करने वाले; भूख, प्यास व परिश्रम से पराजित; शीत आदि की 卐 बाधा से संयुक्त, दुष्ट जीवों के द्वारा रोक कर निर्दयता से पीड़ित किये जाने वाले; तथा मरण 卐 卐 की वेदना से व्यथित प्राणियों के विषय में उनकी पीड़ा के प्रतीकार की इच्छा से जो
अनुग्रहरूप बुद्धि हुआ करती है वह 'करुणा' कही जाती है।
FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET [जैन संस्कृति खण्ड/468