________________
FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEETA
(1152)
सर्ववस्तुषु समतापरिणाममुपगतो विशुद्धचित्तः मैत्री करुणां मुदितामुपेक्षां च ॥ पश्चादुपैति क्षपकः।
(भग. आ. विजयो. 1690) सब वस्तुओं में समताभाव धारण करके वह क्षपक निर्मल चिंत्त हो जाता है। फिर मैत्री, करुणा, मुदिता और उपेक्षा भावना को अपनाता है।
听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听$明明明明明明明明
{1153) मैत्र्यादिवासितं चेतः कर्म सूते शुभात्मकम्। कषाय-विषयाक्रान्तं वितनोत्यशुभं मनः॥
(है. योग. 4/75) . मैत्री, प्रमोद, करुणा और उपेक्षा (माध्यस्थ्य) लक्षण से युक्त चार भावनाओं से भावित मन पुण्यरूप शुभकर्म उपार्जित करता है। (इससे सातावेदनीय, सम्यक्त्व, हास्य, म रति, पुरुषवेद, शुभायु, शुभनाम, और शुभगोत्र प्राप्त करता है) जब कि वही मन क्रोधादि-卐
कषायों और इन्द्रिय-विषयों से आक्रान्त (अभिभूत) होने पर अशुभकर्म उपार्जित करता है। (इससे असातावेदनीय आदि प्राप्त करता है।)
{1154) आत्मानं भावयन्नाभिर्भावनाभिर्महामतिः। त्रुटितामपि संधत्ते विशुद्धां ध्यानसन्ततिम्॥
___ (है. योग. 4/122) मैत्री आदि चार भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित करने वाला महा-बुद्धिशाली ॐ योगी टूटी हुई विशुद्ध ध्यान-श्रेणी को फिर से जोड़ लेता है।
(1155). एता मुनिजनानन्दसुधास्यन्दैकचन्द्रिकाः। ध्वस्तरागाधुरुक्लेशा लोकाग्रपथदीपिकाः॥
___(ज्ञा. 25/15/1281) उपर्युक्त मैत्री आदि चार भावनाएं मुनिजन के हृदय में आनन्दरूप अमृत के रूप में 卐 प्रवाहित होने वाली अनुपम चांदनी के समान, रागादिरूप महाक्लेश को नष्ट करने वाली है और मैं
लोकशिखर (सिद्ध-क्षेत्र) के मार्ग को- रत्नत्रय को-प्रकट करने के लिए दीपक के समान है। REFESPEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
[जैन संस्कृति खण्ड/466