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FEE EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP । दूसरों को दुःख न हो- ऐसी अभिलाषा रखना मैत्री है। मुख की प्रसन्नता आदि के द्वारा भीतर भक्ति और अनुराग का व्यक्त होना प्रमोद है। दोनों पर दयाभाव रखना कारुण्य है।
रागद्वेषपूर्वक पक्षपात का न करना माध्यस्थ्य है। बुरे कर्मों के फल से जो नाना योनियों में 卐जन्मते और मरते हैं, वे सत्त्व हैं। सत्त्व यह जीव का पर्यायवाची नाम है। जो सम्यग्ज्ञानादि EP गुणों में बढ़े-चढ़े हैं, वे गुणाधिक कहलाते हैं। असातावेदनीय के उदय से जो दु:खी हैं वे
क्लिश्यमान कहलाते हैं। जिनमें जीवादि पदार्थों को सुनने और ग्रहण करने का गुण नहीं है, 卐 वे अविनेय कहलाते हैं। इन सत्त्व आदिक के प्रति क्रम से मैत्री आदि की भावना करनी
चाहिए। जो सब जीवों में मैत्री, गुणाधिकों में प्रमोद, क्लिश्यमानों में कारुण्य और अविनेयों 9 में माध्यस्थ भाव की भावना करता है, उसके अहिंसा आदि व्रत पूर्णता को प्राप्त होते हैं।
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{1148) चतस्रो भावना धन्याः पुराणपुरुषाश्रिताः। मैत्र्यादयश्चिरं चित्ते विधेया धर्मसिद्धये ॥
(ज्ञा. 25/4/1270) जिन मैत्री आदि चार भावनाओं का प्राचीन ऋषि-महर्षियों ने आश्रय लिया है, 卐 (अहिंसा) धर्म की सिद्धि के लिए उन प्रशंसनीय भावनाओं का मन में चिरकाल तक
चिन्तन करना चाहिए।
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(1149) जीवेस मित्तचिंता मेत्ती करुणा य होइ अणुकंपा। मुदिदा जदिगुणचिंता सुहदुक्खधियासमणमुवेक्खा ॥
. (भग. आ. 1691) ॥ अनन्तकालं चतसृषु गतिषु परिभ्रमतो घटीयन्त्रवत्सर्वे प्राणभृतोऽपि बहुशः कृत॥ महोपकारा इति तेषु मित्रताचिन्ता मैत्री। 'करुणा य होइ अणुकंपा' शारीरं, आगन्तुकं मानसं 卐 स्वाभाविकं च दुःखमसामानवतो दृष्ट्वा हा वराका मिथ्यादर्शनेनाविरत्या कषायेणाशुभेन योगेन
च समुपार्जिताशुभकर्म- पर्यायपुद्गलस्कन्धतदुदयोद्भवा विपदो विवशाः प्राप्नुवन्ति इति करुणा CE अनुकम्पा। मुदिता नाम यतिगुणचिन्ता, यतयो हि विनीताः, विरागाः, विभयाः, विमानाः, विरोषाः, म विलोभाः इत्यादिकाः। सुखे अरागा दुःखे वा अद्वेषा उपेक्षेत्युच्यते।
(भग. आ. विजयो. 1691) 卐
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[जैन संस्कृति खण्ड/464