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कायेन मनसा वाचाऽपरे सर्वत्र देहिनि ।
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अदुःखजननी वृत्तिर्मैत्री मैत्रीविदां मता ॥ तपो गुणाधिके पुंसि प्रश्रयाश्रयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोदो विदुषां मतः ॥
दीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुण्यं करुणात्मनाम् । हर्षामर्षोज्झिता वृत्तिर्माध्यस्थ्यं निर्गुणात्मनि ॥ इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः । करस्थो जायते स्वर्गो नास्य दूरे च तत्पदम् ॥
सब जीवों से मैत्री भाव रखना चाहिए। जो गुणों में अधिक हों उनके प्रति प्रमोद
(उपासका 26/334-338)
भाव रखना चाहिए । दुःखी जीवों के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए। और जो निर्गुण हों,
का असभ्य और उद्धत हों उनके प्रति माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए।' अन्य सब जीवों को दुःख
न हो' मन, वचन और काय से इस प्रकार का बर्ताव करने को 'मैत्री' कहते हैं । तप आदि
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दयालु पुरुषों की 'गरीबों के उद्धार करने की भावना को 'कारुण्य' कहते हैं । उद्धत तथा
गुणों से विशिष्ट पुरुष को देखकर जो विनयपूर्ण हार्दिक प्रेम उमड़ता है उसे 'प्रमोद' कहते हैं ।
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मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि यथाक्रमम् । सत्त्वगुणाधिक्लष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ॥
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असभ्य पुरुषों के प्रति राग और द्वेष के न होने को 'माध्यस्थ्य' कहते हैं। जो प्राणी गृहस्थ होकर भी इस प्रकार का प्रयत्न करता है, स्वर्ग तो उसके हाथ में है और मोक्ष भी दूर नहीं है ।
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(1147)
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(Haf. 7/11/683)
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अहिंसा - विश्वकोश | 463]
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परेषां दुःखानुत्पत्त्यभिलाषो मैत्री । वदनप्रसादादिभिरभिव्यज्यमानान्तर्भवितरागः प्रमोदः । 馬 दीनानुग्रह भावः कारुण्यम् । रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताभावो माध्यस्थ्यम् । दुष्कर्मविपाकवशानानायो निषु सीदन्तीति सत्त्वा जीवाः । सम्यग्ज्ञानादिभिः प्रकृष्टा गुणाधिकाः । F असद्वेद्योदयापादितक्लेशाः क्लिश्यमानाः । तत्त्वार्थ श्रवणग्रहणाभ्यामसंपादितगुणा अविनेयाः । 卐
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एतेषु सत्त्वादिषु यथासंख्यं मैत्र्यादीनि भावयितव्यानि । सर्वसत्त्वेषु मैत्री, गुणाधिकेषु प्रमोदः, 節 क्लिश्यमानेषु कारुण्यम्, अविनेयेषु माध्यस्थ्यमिति । एवं भावयत: पूर्णान्यहिंसादीनि व्रतानि भवन्ति ।
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