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प्रमाणभूतं वाक्यस्य वक्तृप्रामाण्यतो भवेत् । सर्वप्राणिवधाशंसियज्ञागमविधायिनः ॥ (187) कथमन्मत्तकस्येव प्रामाण्यं विप्रवादिनः। विरुद्धालपितासिद्धानेति चेद्वेदवादिनः ॥ (188) सिद्धे वैकत्र घातोक्रन्यत्रैतनिषेधनात्। स्वयंभूत्वाददोषोऽस्य विरोधे सत्यपीत्यसत् ॥(189) प्रष्टव्योऽसि स्वयंभूत्वं कीदृशं तु तदुच्यताम्। बुद्धिमत्कारणस्पन्दसंबन्धनिरपेक्षणम् ॥ (190) स्वयंभूत्वं भवेन्मेषभेकादीनां च सा गतिः। ततः सर्वज्ञनिर्दिष्टं सर्वप्राणिहितात्मकम्॥ (191) ज्ञेयमागमशब्दाख्यं
सर्वदोषविवर्जितम्। वर्तते यज्ञशब्दश्च दानदेवर्षिपूजयोः ॥ (192) यागो यज्ञः क्रतुः पूजा सपर्येज्याऽध्वरो मखः। मह इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधेः ॥ (193)
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वचन की प्रमाणता वक्ता की प्रमाणता से होती है। जिनमें समस्त प्राणियों की हिंसा का निरूपण है-ऐसे यज्ञप्रवर्तक आगम का उपदेश करने वाले विरुद्धवादी मनुष्य के वचन पागल पुरुष के वचन के समान प्रामाणिक कैसे हो सकते हैं? यदि वेद का निरूपण करने वाले परस्पर-विरुद्धभाषी न हों तो उसमें एक जगह हिंसा का विधान और दूसरी जगह उसका निषेध-ऐसे दोनों प्रकार के वाक्य क्यों मिलते? कदाचित् यह कहो कि वेद स्वयम्भू है, अपने-आप बना हुआ है, अतः परस्पर-विरोध होने पर भी दोष नहीं है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आपसे यह पूछा जा सकता है कि स्वयम्भूपना क्या होता है? इसका क्या अर्थ है? यह तो कहिए। यदि बुद्धिमान मनुष्यरूपी कारण के हलन-चलन रूपी सम्बन्ध से निरपेक्ष रहना अर्थात् किसी भी बुद्धिमान मनुष्य के हलन-चलन रूपी व्यापार के बिना ही वेद रचा गया है, अत: स्वयंभू है। स्वयंभूपन का उक्त अर्थ यदि आप लेते हैं तो मेघों की गर्जना और मेंढकों की टर्र-टर्र-इनमें भी स्वयंभूपन आ जावेगा, क्योंकि ये सब भी तो अपने-आप ही उत्पन्न होते हैं- इसलिए आगम वही है-शास्त्र वही है, जो सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ हो, समस्त प्राणियों का हित करने वाला हो और सब दोषों से रहित हो यज्ञ शब्द, दान देना तथा देव व ऋषियों की पूजा करने के अर्थ में प्रयुक्त होता है। याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, सपर्या, इज्या, अध्वर, मख और मह-ये सब पूजाविधि के पर्यायवाचक शब्द हैं।
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यज्ञशब्दाभिधेयोरुदानपूजास्वरूपकात् धर्मात्पुण्यं समावर्ण्य तत्पाकाद्दिविजेश्वराः ॥ (194) शतक्र तुः शतमखः शताध्वर इति श्रुताः। प्रादुर्भूताः प्रसिद्धास्ते लोकेषु समयेषु च ॥ (195)
यज्ञ' शब्द का वाच्यार्थ जो बहुत भारी दान देना और पूजा करना है, तत्स्वरूप धर्म से ही लोग पुण्य का ॐ संचय करते हैं और उसी के फल से देवेन्द्र होते हैं। इसलिए ही लोक और शास्त्रों में इन्द्र के शतक्रतु, शतमख और ॐ शताध्वर आदि नाम प्रसिद्ध हुए हैं तथा सब जगह सुनाई देते हैं।
[जैन संस्कृति खण्ड/484