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तेष्वेकोऽभाषतात्मज्ञः पण्वित्यस्मत्समीपगः। वसुः क्षितिपतेः सूनुः तीव्ररागादिदूषितः॥ (265) हिंसाधर्म विनिचित्य नरकावासमेष्यति । परोऽब्रवीदयं मध्यस्थितो ब्राह्मणपुत्रकः॥ (266) पर्वताख्यो विधीः करो महाकालोपदेशनात्। पठित्वाऽऽथर्वणं पापशास्त्रं दुर्मादेशकः॥ (267) हिंसैव धर्म इत्वज्ञो रौद्रध्यानपरायणः। बहंस्तत्र प्रवास्मिन् नरकं यास्यतीत्यतः। (268)
उन तीनों मुनियों में एक आत्मज्ञानी मुनि थे। वे कहने लगे कि सुनिए, यह जो राजा का पुत्र वसु हमारे । के पास बैठा हुआ है वह तीव्र रागादिदूषित है, अत: हिंसारूप धर्म का निश्चय कर नरक जावेगा। तदनन्तर बीच में बैठे । जा हुए दूसरे मुनि कहने लगे कि यह जो ब्राह्मण लड़का है, इसका पर्वत नाम है, यह निर्बुद्धि है, क्रूर है, यह महाकाल
के उपदेश से अथर्ववेद नामक पापप्रवर्तक शास्त्र का अध्ययन कर खोटे मार्ग का उपदेश देगा। यह अज्ञानी हिंसा FE को ही धर्म समझता है। निरन्तर रौद्रध्यान में तत्पर रहता है और बहुत लोगों को उसी मिथ्यामार्ग में प्रवृत्त करता
है, अत: नरक जाएगा।
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तृतीयोऽपि ततोऽवादीदेष पश्चादवस्थितः। नारदाख्यो द्विजो धीमान् धर्मध्यानपरायणः॥ (269) अहिंसालक्षणं
धर्ममाश्रितानामुदाहरन्। पतिगिरितटाख्यायाः पुरो भूत्वा परिग्रहम्॥ (270) परित्यज्य तपः प्राप्य प्रान्तानुत्तरमेष्यति। इत्येवं तैस्त्रिभिः प्रोक्तं श्रुत्वा सम्यग्मयोदितम् ॥ (271) सोपदेशं धृतं सर्वरित्यस्तावीन्मुनिश तान्। सर्वमेतदुपाध्यायः प्रत्यासनगुमाश्रयः॥ (272) प्रणिधानात्तदाकर्ण्य
तदेतद्विधिचेष्टितम्। एतयोरशुभं विग्धिक् किं मयाऽत्र विधीयते ॥ (273)
तदनन्तर तीसरे मुनि कहने लगे कि यह जो पीछे बैठा है, इसका नारद नाम है। यह जाति का ब्राह्मण है, बुद्धिमान् है, धर्मध्यान में तत्पर रहता है, अपने आश्रित लोगों को अहिंसारूप धर्म का उपदेश देता है, यह आगे चल मकर गिरितट नामक नगर का राजा होगा और अन्त में परिग्रह छोड़कर तपस्वी होगा तथा अंतिम अनुत्तरविमान में न * उत्पन्न होगा। इस प्रकार उन तीनों मुनियों का कहा सुन कर श्रुतधर मुनिराज ने कहा कि तुम लोगों ने मेरा कहा उपदेश ॐ ठीक-ठीक ग्रहण किया है, ऐसा कह कर उन्होंने उन तीनों मुनियों की स्तुति की। इधर एक वृक्ष के आश्रय में बैठान ॐ हुआ क्षीरकदम्ब उपाध्याय, यह सब बड़ी सावधानी से सुन रहा था। सुन कर वह विचारने लगा कि विधि की लीला 3 बड़ी विचित्र है, देखो, इन दोनों की- पर्वत और वसु की अशुभ गति होने वाली है। इनके अशुभ कर्म को धिक्कार 卐 हो, मैं इस विषय में कर ही क्या सकता हूँ?
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अहिंसा-विश्वकोश/493]