Book Title: Ahimsa Vishvakosh Part 02
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 521
________________ 會出$$$$! 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐编卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 जन्मान्तरे फलेनास्य तपस: सगरान्वयम् । सर्व निर्मूलयामीति विधीः कृतनिदानकः ॥ (250) मृत्वाऽसावसुरेन्द्रस्य महिषानीक आदिमे । कक्षाभेदे चतुःषष्टिसहस्रासुरनायकः ॥ (251) महाकालोऽभवत्तत्र देवैरावेष्टितो निजैः । देवलोकमिमं केन प्राप्तोऽहमिति संस्मरन् ॥ (252) ज्ञात्वा विभङ्गज्ञानोपयोगेन प्राक्तने भवे । प्रवृत्तमखिलं पापो कोपाविष्कृतचेतसा ॥ (253) तस्मिन् मंत्रिणि भूपे च रूढवैरोऽपि तौ तदा । अनिच्छन् हन्तुमत्युग्रं सुचिकीर्षुरहं तयोः ॥ (254) 蛋蛋蛋餅 'मैं इस तप के फल से दूसरे जन्म में राजा सगर के समस्त वंश को निर्मूल करूंगा।' ऐसा उन बुद्धिहीन मधुपिंगल मुनि ने निदान कर लिया। अंत में मर कर वे असुरेन्द्र की महिष जाति की सेना की पहली कक्षा में चौंसठ हजार असुरों का नायक महाकाल नाम का असुर हुआ। वहां उत्पन्न होते ही उसे अनेक आत्मीय देवों ने घेर लिया। 卐 के द्वारा अपने पूर्वभव का सब समाचार याद आ गया। याद आते ही उस पापी का चित्त क्रोध से भर गया। मंत्री और मैं इस देव लोक में किस कारण से उत्पन्न हुआ हूं, जब वह इस बात का स्मरण करने लगा तो उसे विभंगावधिज्ञान 卐 राजा के ऊपर उसका वैर जम गया। यद्यपि उन दोनों पर उसका वैर जमा हुआ था । यथापि वह उन्हें जान से नहीं मारना चाहता था, उसके बदले वह उनसे कोई भयंकर पाप करवाना चाहता था। तदुपायसहायांश्च संचिन्त्य समुपस्थितः । नाचिन्तयन् महत्पापमात्मनो धिग्विमूढताम् ॥ (255) इदं प्रकृतमात्रान्यत्तदभिप्रायसाधनम् । द्वीपेऽत्र भरते देशे धवले स्वस्तिकावती ॥ (256) पुरं विश्वावसुस्तस्य पालको हरिवंशजः । देव्यस्य श्रीमती नाम्ना वसुरासीत् सुतोऽनयोः ॥ (257) धिक्कार हो । उधर वह अपने कार्य के योग्य उपाय और सहायकों की चिंता कर रहा था। इधर उसके अभिप्राय को सिद्ध करने वाली दूसरी घटना घटित हुई, जो इस प्रकार है:- इसी जम्बूद्वीप सम्बन्धी भरत क्षेत्र के धवल देश में एक स्वस्तिकावती नाम का नगर है। हरिवंश में उत्पन्न हुआ राजा विश्वावसु उसका पालन करता था। इसकी स्त्री का नाम का श्रीमती था । उन दोनों के वसु नाम का पुत्र था । 卐 卐 筑 $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ वह असुर इसके योग्य उपाय तथा सहायकों का विचार करता हुआ पृथ्वी पर आया, परंतु उसने इस बात क का विचार नहीं किया कि इससे मुझे बहुत भारी पाप का संचय होता है। आचार्य कहते हैं कि ऐसी मूढ़ता के लिए 编卐卐卐卐卐卐卐 馬 5卐卐卐 अहिंसा - विश्वकोश | 491] 卐 卐 卐

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