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अनुष्ठाय तथा सोऽपि प्राविशत्पापिनां क्षितिम्। निर्मूलं कुलमप्यस्य नष्टं दुर्मार्गवर्तनात् ॥ (163) श्रुत्वा तत्सात्मजो रामपिताऽस्माकं क्रमागतम्। साकेतपुरमित्येत्य तदध्यास्यान्वपालयत्॥ (164)
वह राजा भी उसके कहे अनुसार यज्ञ करके पापियों की भूमि अर्थात् नरक में प्रविष्ट हुआ। इस प्रकार 卐 कुमार्ग में प्रवृत्ति करने से इस राजा का समस्त कुल नष्ट हो गया। वाराणसी में राज्य कर रहे राजा दशरथ ने जब यह ॥
समाचार सुना तब उन्होंने सोचा कि अयोध्या नगर तो हमारी वंश-परम्परा से चला आया है। ऐसा विचार कर वे (वाराणसी से) अपने पुत्रों के साथ अयोध्या नगर में गए और वहीं रह कर उसका पालन करने लगे।
तत्रास्य देव्यां कस्यांचिदभवद्भरतायः। शत्रुघ्नश्चान्यदप्येकं दशाननवधाद्यशः॥ (165) कारणं प्रकृतं भावि रामलक्ष्मणयोरिदम्। मिथिलानगराधीशो जनकस्तस्य वल्लभा॥ (166) सरूपा वसुधा देवी विनयादिविभूषिता। सुता सीतेत्यभूत्तस्याः संप्राप्तनवयौवना॥ (167) तां वरीतुं समायातनृपदूतान् महीपतिः। ददामि तस्मै दैवानुकूल्यं यस्येति सोऽमुचत् ॥ (168)
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वहीं इनकी किसी अन्य रानी से भरत तथा शत्रुघ्न नाम के दो पुत्र और हुए थे। रावण को मारने से राम और लक्ष्मण का जो यश होने वाला था उसका एक कारण था-वह यह कि उसी समय मिथिला नगरी में राजा जनक राज्य करते थे। उनकी अत्यन्त रूपवती तथा विनय आदि गुणों से विभूषित वसुधा नामकी रानी थी। राजा जनक की वसुधा नामकी रानी से सीता नाम की पुत्री उत्पन्न हुई थी। जब वह नवयौवन को प्राप्त हुई तो उसे वरने के लिए अनेक राजाओं ने अपने-अपने दूत भेजे। परंतु राजा ने यह कह कर कि मैं यह पुत्री उसी को दूंगा जिसका कि दैव अनुकूल होगा, उन आए हुए दूतों को बिदा कर दिया।
नृपः कदाचिदास्थानी विद्वज्जनविराजिनीम्। आस्थाय कार्यकुशलं कुशलादिमतिं हितम्॥ (169) सेनापतिं समप्राक्षीत् प्राक्प्रवृत्तं कथान्तरम्। पुरा किलात्र सगरः सुलसा चाहुतीकृता॥ (170) परे चाश्वादयः प्रापन् सशरीराः सुरालयम्। इतीदं श्रूयतेऽद्यापि यागेन यदि गम्यते ॥ (171) स्वर्लोकः क्रियतेऽस्माभिरपि याज्ञो यथोचितम्। इति तद्वचनं श्रुत्वा स सेनापतिरब्रवीत् ॥ (172) नागासुरैः सदा कुबैर्मात्सर्येण परस्परम् ।
अन्योन्यारब्धकार्याणां प्रतिघातो विधीयते ॥ (173) HTTPSEEEEEEEEEEEEEEEET
अहिंसा-विश्वकोश/481)