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परिशिष्ट (1)
● राजा वसु की कथा (आचार्य जिनसेन-कृत हरिवंश पुराण से उद्धृत)
द्रष्ट मागतः ॥
एकदा नारदश्चात्रैर्बहुभिश्छत्रिभिर्वृतः । गुरुवद् गुरुपुत्रेच्छ: पर्वतं कृतेऽभिवादने तेन कृतप्रत्यभिवादनः । सोऽभिवाद्य गुरोः पत्नीं गुरुसंकथया स्थितः ॥ अथ व्याख्यामसौ कुर्वन् वेदार्थस्यापि गर्वितः । पर्वतः सर्वतश्छात्रवृतो नारदसंनिधौ ॥ अजैर्यष्टव्यमित्यत्र वेदवाक्ये विसंशयम् । अजशब्दः किलाम्नातः पश्वर्थस्याभिधायकः ॥ तैरजैः खलु यष्टव्यं स्वर्गकामैरिह द्विजैः । पदवाक्यपुराणार्थ परमार्थ विशारदैः ॥ प्रतिबन्धमिहान्धस्य तस्य चक्रे स नारदः । युक्त्यागमबलालोक ध्वस्ताज्ञानतमस्तरः भट्टपुत्र ! किमित्येवमपव्याख्यामुपाश्रितः । कुतोऽयं संप्रदायस्ते सहाध्यायिन्नुपागतः ॥ एकोपाध्यायशिष्याणां नित्यमव्यभिचारिणाम् । गुरुशुश्रूषताऽत्यागे संप्रदायभिदा कुतः ॥ न स्मरत्यजशब्दस्य यथेहार्थो गुरूदितः । त्रिवर्षा व्रीहयोऽबीजा अजा इति सनातनः ॥
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(ह.पु. 17/61-69)
एक दिन बहुत से छत्रधारी शिष्यों से घिरा नारद, गुरुपुत्र को गुरु के समान मानता हुआ पर्वत से मिलने के लिए आया। पर्वत ने नारद का अभिवादन किया और नारद ने पर्वत का प्रत्यभिवादन किया । तदनन्तर गुरुपत्नी को नमस्कार कर नारद गुरुजी की चर्या करता हुआ बैठ गया। उस समय पर्वत सब ओर से छात्रों से घिरा वेद-वाक्य की की व्याख्या कर रहा था। वह नारद के सम्मुख भी उसी तरह गर्व से युक्त हो व्याख्या करने लगा। वह कह रहा था कि 'का अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद वाक्यों में जो अज शब्द आया है वह निःसन्देह पशु अर्थ का ही वाचक माना गया है। इसलिए पद वाक्य और पुराण के अर्थ के वास्तविक जानने वाले एवं स्वर्ग के इच्छुक जो द्विज हैं, उन्हें बकरे से ही यज्ञ करना चाहिए। युक्ति, बल और आगम बलरूपी प्रकाश से जिसका अज्ञानरूपी अन्धकार का पटल नष्ट हो गया था, ऐसे नारद ने अज्ञानी पर्वत के उक्त अर्थ पर आपत्ति की। नारद ने पर्वत को सम्बोधते हुए कहा कि हे गुरुपुत्र ! तुम इस प्रकार की निन्दनीय व्याख्या क्यों कर रहे हो? हे मेरे सहाध्यायी ! यह सम्प्रदाय तुम्हें कहां से प्राप्त हुआ है ? जो निरन्तर साथ ही साथ रहे हैं तथा जिन्होंने कभी गुरु की शुश्रूषा का त्याग नहीं किया ऐसे एक ही उपाध्याय के शिष्यों में सम्प्रदाय-भेद कैसे हो सकता है? यहां 'अज' शब्द का जैसा गुरुजी ने बताया था, वह क्या तुम्हें स्मरण नहीं है ? गुरुजी ने तो कहा था जिसमें अंकुर उत्पन्न होने की शक्ति नहीं है, ऐसा पुराना धान्य 'अज' कहलाता है, यही सनातन अर्थ है। 卐卐卐卐卐卐卐卐 高
筆
अहिंसा - विश्वकोश 471]