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ततः स्वर्गसुखं पुंसां ततो मोक्षसुखं धुव्रम्। ततः कीर्तिस्ततः कान्तिस्ततो दीप्तिस्ततो धृतिः॥ पिष्टे नापि न यहव्यं पशुत्वेन विकल्पितात्। संकल्पादशुभात्पापं पुण्यं तु शुभतो यतः॥ यो नामस्थापनाद्रव्यर्भावेन च विभेदनात् । चतुर्धा हि पशुः प्रोक्तस्तस्य चिन्त्यं न हिंसनम् ॥ यदुक्तं मन्त्रतो मृत्योर्न दुःखमिति तन्मृषा। नचेद्दुःखं न मृत्युः स्यात स्वस्थावस्थस्य पूर्ववत् ॥ पादनासाधिरोधेन विना चेनिपतेत्पशः। मन्त्रेण मरणं तथ्यमसंभाव्यमिदं पुनः॥ सुखासिकापि नैकान्तान्मर्तमन्त्रप्रभावतः। दुःखिताप्यारटजन्तोहातस्य निरीक्ष्यते॥
(ह. पु. 17/133-138)
उसी पूजा से पुरुषों को स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है, उसी से मोक्ष का अविनाशी सुख मिलता है, उसी से ॐ कीर्ति, उसी से कान्ति, उसी से दीप्ति और उसी से धृति की प्राप्ति होती है। साक्षात् पशु की बात तो दूर रही, पशु रूप ॐ से कल्पित चून (आटे)के पिण्ड से भी पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अशुभ संकल्प से पाप होता है और शुभ ॐ संकल्प से पुण्य होता है। जो नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव निक्षेप के भेद से चार प्रकार का पशु कहा गया है, उसकी
हिंसा का कभी मन से भी विचार नहीं करना चाहिए। यह जो कहा है कि मन्त्र द्वारा होने वाली मृत्यु से दुःख नहीं होता है- वह मिथ्या है, क्योंकि यदि दुःख नहीं होता तो जिस प्रकार पहले स्वस्थ अवस्था में मृत्यु नहीं हुई थी उसी प्रकार अब भी मृत्यु नहीं होनी चाहिए। यदि पैर बांधे बिना और नाक मूंदे बिना अपने आप पशु मर जावे तब तो मन्त्र से मरना सत्य हो जाये, परन्तु यह असम्भव बात है। मन्त्र के प्रभाव से मरने वाले पशु को सुखासिका प्राप्त होती है- यह भी एकान्त नहीं है, क्योंकि जो पश मारा जाता है वह ग्रह से पीड़ित की तरह जोर-जोर से चिल्लाता है, इसलिए उसका दुःख स्पष्ट दिखाई देता है।
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प्राणिघातकृतः स्वर्गः कुतः स्याद्याजकादयः। याज्यस्य स्वर्गगामित्वे दृष्टान्तत्वं गता गतः॥ धर्म्यमेव हि शर्माप्त्यै कर्म याज्यस्य जायते । नह्मपथ्यं शिशोर्दत्तं मात्राऽपि स्यात्सखाप्तये॥ परिषत्प्रावृषि स्फूर्जद्वचोवज्रमुखैरिति । भित्त्वा पर्वतदुःपक्षं स्थिते नारदनीरदे॥ साधुकारो . मुहुर्दत्तस्तस्मै धर्मपरीक्षकैः। सलौकिकैः शिर:कम्पस्वाङ्ग लिस्फोटनिस्वनैः॥
(ह. पु. 17/144-147) EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश/4771
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