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ॐ सिद्ध शब्द और उसके अर्थ का जो सम्बन्ध पहले से निश्चित चला आ रहा है, यदि उसमें बाधा डाली जावेगी ॐ तो व्यवहार का ही लोप हो जावेगा, क्योंकि यह जगत् अन्ध उलूकों से सहित है- निर्विचार मनुष्यों से भरा हुआ है । शब्द
योग्य अर्थ में अवांछित रूप से प्रवृत्त होता है और ऐसा होने पर ही शास्त्रीय अथवा लौकिक व्यवहार चलता है। जिस प्रकार 'अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' स्वर्ग का इच्छुक मनुष्य अग्निहोत्र यज्ञ करे, इस श्रुति में अग्नि आदि शब्दों का प्रसिद्ध ही अर्थ लिया जाता है, उसी प्रकार 'अजैर्यष्टव्यं स्वर्गकामैः' स्वर्ग के इच्छुक मनुष्यों को अजों से होम करना चाहिए- इस श्रुति में भी अज का पशु अर्थ ही स्पष्ट है और यागादि शब्दों का अर्थ तो पशुघात निश्चित ही है। इसलिए 'अजैर्यष्टव्यम्' इत्यादि वाक्यों द्वारा निःसन्देह, जिसमें अज के बालका का घात होता है- ऐसा अनुष्ठान करना चाहिए। यहां यह आशंका नहीं करनी चाहिए कि घात करते समय पशु को दुःख होता होगा, क्योंकि मन्त्र के प्रभाव से उसकी सुख से मृत्यु होती है, उसे दुःख तो नाम मात्र का भी नहीं होता।
मन्त्राणां वाहने साक्षाद् दीक्षान्तेऽतिसुखासिका। मणिमन्त्रौषधीनां हि प्रभावोऽचिन्त्यतां गतः॥ निपातनं च कस्यात्र यत्रात्मा सूक्ष्मतां श्रितः। अबध्योऽग्निविषास्त्राद्यैः किं पुनमन्त्रवाहनैः॥ सूर्य चक्षुर्दिशं श्रोत्रं वायुं प्राणानसृक्पयः। गमयन्ति वपुः पृथ्वी शमितारोऽस्य याज्ञिकाः॥ स्वमन्त्रेणेष्टमात्रेण स्वलॊकं गमितः सुखम्। याजकादिवदाकल्पमनल्यं
पशुरश्रुते॥ अभिसंधिकृतौ बन्धः स्वर्गाप्त्यै सोऽस्य नेत्यपि। न बलाद्याज्यमानस्य शिशोर्वद्विषतादिभिः॥
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(ह. पु. 17/108-112)
दीक्षा के अन्त में मन्त्रों का उच्चारण होते ही पश को सुखमय स्थान साक्षात् दिखाई देने लगता है, वह ठीक ही है क्योंकि मणि, मन्त्र और ओषधियों का प्रभाव अचिन्त्य होता है। जब कि आत्मा अत्यन्त सूक्ष्मता को प्राप्त है तब यहां घात किसका होता है? यह आत्मा तो अग्नि, विष तथा अस्त्र आदि के द्वारा भी घात करने योग्य नहीं है, फिर मन्त्रपाठों के द्वारा तो इसका घात होगा ही किस तरह? याज्ञिक लोग यज्ञ में पश का घात कर उसके चक्ष को सूर्य के पास, क्षेत्र को दिशाओं के पास, प्राणों को वायु के पास, खून को जल के पास और शरीर- को पृथ्वी के पास भेज देते हैं। इस तरह याज्ञिक उसे शान्ति ही पहुंचाते हैं न कि कष्ट । मन्त्र द्वारा होम करने मात्र से ही पशु सीधा स्वर्ग भेज दिया ज है और वहां यज्ञ कराने वाले आदि के समान वह कल्पकाल तक बहुत भारी सुख भोगता रहता है। अभिप्रायपूर्वका हुआ पुण्यबन्ध ही स्वर्ग की प्राप्ति का कारण है और बलपूर्वक होमे गये पशु के वह सम्भव नहीं है, इसलिए उसे स
की प्राप्ति होना असम्भव है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार बच्चे को उसको उसकी इच्छा के विरुद्ध FE जबर्दस्ती दिये हुए घृतादिक से उसकी वृद्धि देखी जाती है, उसी प्रकार यज्ञ में जबर्दस्ती होमे जाने वाले पशु के भी स्वर्ग
की प्राप्ति सिद्ध है।
अहिंसा-विश्वकोश|475]