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तदत्र भवतोऽध्यक्षममीषां विदुषां पुरः। लभेतां निश्चयादेतौ न्याय्यौ जयपराजयो॥ न्यायेनावसिते ह्यत्र वादे वेदानुसारिणाम् । स्यात्प्रवृत्तिरसंदिग्धा सर्वलोकोपकारिणी॥ इत्युर्वीन्द्रः स विज्ञप्तः पूर्वपक्षमदापयत् । पर्वताय सदस्यस्तै : सगर्व : पक्षमग्रहीत् ॥ अजैर्यज्ञविधिः कार्यः स्वर्गार्थिभिरिति श्रुतिः। अजाश्चात्र चतुष्पादाः प्रणीताः प्राणिनः स्फुटम्॥ न केवलमयं वेदे लोकेऽपि पशवाचकः। आवृद्धादङ्गनाबालादजशब्दः प्रतीयते॥ नरोऽजपोतगन्धोऽयमजायाः क्षीरमित्यपि। नापनेतुमियं शक्या प्रसिद्धिस्त्रिदशैरपि।
(ह. पु. 17/96-101) इसलिए आपकी अध्यक्षता में इन सब विद्वानों के आगे ये दोनों निश्चय कर न्यायपूर्ण जय और पराजय को प्राप्त करें। न्याय द्वारा इस वाद के समाप्त होने पर वेदानुसारी मनुष्यों की प्रवृत्ति सन्देहरहित एवं सब लोगों का उपकार ज करने वाली हो जायेगी। इस प्रकार वृद्धजनों के कहने पर राजा वसु ने पर्वत के लिए पूर्व पक्ष दिलवाया अर्थात् पूर्वपक्ष ॐ रखने का उसे अवसर दिया और अपने साथी सदस्यों के कारण गर्व से भरे पर्वत ने पूर्व पक्ष ग्रहण किया। पूर्व पक्ष ॐ रखते हुए उसने कहा कि 'स्वर्ग के इच्छुक मनुष्यों को अजों द्वारा यज्ञ की विधि करनी चाहिए' यह एक श्रुति है। इसमें 卐 जो 'अज' शब्द है उसका अर्थ चार पावों.वाला जन्तु-विशेष-बकरा है। अज' शब्द न केवल वेद में ही पशुवाचक 卐 है, किन्तु लोक में भी स्त्रियों और बालकों से लेकर वृद्धों तक पशुवाचक ही प्रसिद्ध है। यह मनुष्य अज के बालक के ॐ समान गन्ध वाला है, और यह अजा-बकरी का दूध है' इत्यादि स्थलों में अज शब्द की जिस अर्थ में प्रसिद्धि है, वह ॐ देवों के द्वारा भी दूर नहीं की जा सकती।
坊明听听听听听听听听听听听听
सिद्धशब्दार्थसंबन्धे नियते तस्य बाधने। व्यवहारविलोपः स्यादन्धधूकमिदं जगत् ॥ अबाधितः पुनाये शब्दे शब्दः प्रवर्तते । शास्त्रीयो लौकिकश्चात्र व्यवहारः सुगोचरे ॥ यथाऽग्रिहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकाम इति श्रुतौ। अग्रिप्रभृतिशब्दानां प्रसिद्धार्थपरिग्रहः॥ तथैवात्राजशब्दस्य पशुरर्थः स्फुटः स्थितः। कुत्र यागादिशब्दार्थ: पशपातश्च निश्चितः॥ अतोऽनुष्ठानमास्थेयमजपोतनिपातनम् । यजैर्यष्टव्यमित्यत्र वाक्यैर्निष्ठितसंशयः॥ आशङ्का च न कर्तव्या पशोरिह निपातने। दुःखं स्यादिति मन्त्रेण सुखमृत्योर्न दुःखिता॥
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(ह. पु. 11/102-107)
[जैन संस्कृति खण्ड/474