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(उपेक्षा/माध्यस्थ्य भावना)
{1165) क्रोधविद्धेषु सत्त्वेषु निस्त्रिंशक्रूरकर्मसु । मधुमांससुरान्यस्त्रीलुब्धेष्वत्यन्तपापिषु ॥ देवागमयतिवातनिन्दकेष्वात्मशंसिषु । नास्तिकेषु च माध्यस्थ्यं यत्सोपेक्षा प्रकीर्तिता॥
__ (ज्ञा. 25/14/1280) ___ उपेक्षा भावना- जो प्राणी क्रोध से संयुक्त, निर्दयतापूर्वक दुष्ट कर्म करने वाले; मधु, 15 मांस, मद्य एवं पर-स्त्री में आसक्त; अतिशय पापी; देव, शास्त्र व मुनि संघ के निन्दक, 卐
अपनी प्रशंसा करने वाले तथा नास्तिक (आत्मा व परलोक के न मानने वाले) हैं, उनके विषय में क्षोभ को प्राप्त न होकर जो मध्यस्थता का भाव रखा जाता है, वह 'उपेक्षा भावना कहलाती है।
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{1166) क्रूरकर्मसु निःशंकं, देवता-गुरु-निन्दिषु। आत्मशंसिषु योपेक्षा, तन्माध्यस्थ्यमुदीरितम्॥
(है. योग. 4/121 निःशंकता से क्रूर कार्य करने वाले, देव-गुरु की निन्दा करने वाले और आत्म卐 प्रशंसा करने वाले जीवों पर उपेक्षा रखना 'माध्यस्थ्यभावना' है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/470