________________
{1156)
मैत्री-प्रमोद-कारुण्य-माध्यस्थ्यानि नियोजयेत्। धर्मध्यानमुपस्कर्तुं, तद्धि तस्य रसायनम्॥
(है. योग. 4/117) ____धर्मध्यान टूट जाता हो तो मैत्री, प्रमोद, कारुण्य आर माध्यस्थ्य भावना में मन को 卐 जोड़ देना चाहिए। क्योंकि जरा से जर्जरित शरीर वाले के लिए जैसे रसायन उपकारी होता है है, वैसे ही धर्मध्यान के लिए मैत्री आदि भावना पुष्टरूप रसायन हैं।
(मैत्री-भावना)
弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱品
{1157) क्षुद्रेतरविकल्पेषु : चरस्थिरशरीरिषु । सुखदुःखाद्यवस्थासु संस्थितेषु यथायथम् ॥ नानायोनिगतेष्वेषु समत्वेनाविराधिका। साध्वी महत्त्वमापन्ना मतिमैत्रीति पठ्यते ॥
(ज्ञा. 25/5-6/1271-72) मैत्रीभावना- यथायोग्य सुख व दुःख अवस्थाओं में वर्तमान सूक्ष्म व स्थूल भेदरूप तथा चलते हुए व स्थिर शरीर से संयुक्त (त्रस-स्थावर) ऐसे अनेक योनियों में अवस्थित प्राणियों के विषय में जो समभावस्वरूप से, विराधनारहित उत्तम महती बुद्धि होती है, उसे 卐 'मैत्रीभावना' कहा जाता है। [अभिप्राय है कि सभी संसारी जीवों में समानता का भाव रखते है
हुए उनके लिए दु:ख उत्पन्न न हो, इस प्रकार की अभिलाषा का नाम 'मैत्रीभावना' है।]
{1158} जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवर्जिताः। प्राप्नुवन्तु सुखं त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम्॥
(ज्ञा. 25/7/1273) 卐 सभी प्राणी संक्लेश व आपत्ति से रहित होकर जीवित रहें तथा वैर, पाप एवं अपमान को छोड़कर सुख को प्राप्त हों; ऐसा विचार करना, इसका नाम 'मैत्री भावना' है।
明明詩
अहिंसा-विश्वकोश/4671