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{1143) पुंस्कोकिलकलालापडिण्डिमानुगतैर्लयैः । चक्षुःश्रवस्सु पश्यत्सु तद्विषोऽनटिषुर्मुहुः॥ महिना शमिनः शान्तमित्यभूत्तश्च काननम्। धत्ते हि महतां योगः शममप्यशमात्मसु॥
(आ. पु. 36/176-177) मोर, कोकिलों के सुन्दर शब्दरूपी डिण्डिम बाजे के अनुसार होने वाले लय के # के साथ-साथ सर्पो के देखते रहते भी बार-बार नृत्य कर रहे थे। इस प्रकार अतिशय शान्त रहने ॐ वाले उन मुनिराज के माहात्म्य से वह वन भी शान्त हो गया था, वह ठीक ही है, क्योंकि
महापुरुषों का संयोग क्रूर जीवों में भी शान्ति उत्पन्न कर देता है।
{1144) शान्तस्वनैर्नदन्ति स्म वनान्तेऽस्मिन् शकुन्तयः। घोषयन्त इवात्यन्तं शान्तमेतत्तपोवनम्॥ तपोनुभावादस्यैवं प्रशान्तेऽस्मिन् वनाश्रये। विनिपातः कुतोऽप्यासीत् कस्यापि न कथञ्चन ।
__(आ. पु. 36/178-179) इस वन में अनेक पक्षी शान्त शब्दों से चहक रहे थे और वे ऐसे जान पड़ते थे मानो मैं इस बात की घोषणा ही कर रहे हों कि यह तपोवन अत्यन्त शान्त है। उन मुनिराज के तप है 卐 के प्रभाव से यह वन का आश्रय ऐसा शान्त हो गया था कि यहां के किसी भी जीव को किसी
के भी द्वारा कुछ भी उपद्रव/कष्ट नहीं हो रहा था।
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० अहिंसात्मक गैत्री आदि भावनाएं: ध्यान-योग की अंग
{1145) मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यं च यथाक्रमम्। सत्त्वे गुणाधिके क्लिष्टे ह्यविनेये च भाष्यते ॥
(ह. पु. 58/125) मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ्य,- ये चार भावनाएं क्रम से प्राणी-मात्र, गुणाधिक, दुःखी और अविनेय जीवों में करनी चाहिएं।
[भावार्थ- किसी जीव को दुःख न हो ऐसा विचार करना 'मैत्री भावना' है। अपने से अधिक गुणी मनुष्यों को देख कर हर्ष प्रकट करना 'प्रमोद भावना' है। दुःखी मनुष्यों को देख कर हृदय में दयाभाव उत्पन्न होना 'करुणा ॐ भावना' है और अविनेय मिथ्यादृष्टि जीवों में मध्यस्थ भाव रखना 'माध्यस्थ्य भावना' है।]
FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF [जैन संस्कृति खण्ड/462