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(1112) हिंसानन्दं समाधाय हिंस्रः प्राणिषु निघृणः। हिनस्त्यात्मानमेव प्राक् पश्चाद् हन्यान्न वा परान्॥
__ (आ. पु. 21/46) जीवों पर दया न करने वला हिंसक पुरुष हिंसानन्द नाम के रौद्रध्यान को धारण कर ॐ पहले अपने-आपका घात करता है, पीछे अन्य जीवों का घात करे अथवा न भी करे।
[भावार्थ- अन्य जीवों का मारा जाना उनके आयु कर्म के अधीन है, परन्तु मारने का संकल्प करने वाला॥ 卐 हिंसक पुरुष तीव्र कषाय उत्पन्न होने से अपने आत्मा की हिंसा अवश्य कर लेता है अर्थात् अपने क्षमा आदि गुणों को卐
नष्ट कर भाव-हिंसा का अपराधी अवश्य हो जाता है।]
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{1113) हिंसाणंदेण जुदो असच्च-वयणेण परिणदो जो हु। तत्थेव अथिर-चित्तो रुदं झाणं हवे तस्स॥
(स्वा. कार्ति. 12/475) __जो मनुष्य हिंसा में आनन्द मानता है और असत्य बोलने में भी आनन्द मानता है 卐 तथा उसी में जिसका अस्थिर चित्त संलग्न रहता है, उसके रौद्र ध्यान होता है।
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हिंसादीन्युक्तलक्षणानि। तानि रौद्रध्यानोत्पत्तेनिमित्तीभवन्तीति।
__ (सर्वा. 9/35/888) हिंसादिक के लक्षण यथास्थान कहे गए हैं। वे (हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य व ' ॐ परिग्रह) रौद्रध्यान की उत्पत्ति में निमित्त होते हैं।
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तेणिकमोससारक्खणेसु तध चेव छव्विहारंभे। रुदं कसायसहिदं झाणं भणियं समासेण॥
. (मूला. 4/396) ____चोरी, असत्य, परिग्रहसंरक्षण और छह प्रकार की जीव-हिंसा के आरम्भ में कषाय सहित होना- संक्षेप में यह रौद्र ध्यान है।
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अहिंसा-विश्वकोश/4511