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साम्यमेव परं ध्यानं प्रणीतं विश्वदर्शिभिः। तस्यैव व्यक्तये नूनं मन्येऽयं शास्त्रविस्तरः॥
(ज्ञा. 22/13/1159) समस्त लोक के ज्ञाता-द्रष्टा सर्वज्ञ देव ने एक साम्यभाव को ही उत्कृष्ट ध्यान के रूप में निरूपित किया है। मेरा तो यह विचार है कि सभी शास्त्रों का विस्तार (भी) उसी ' साम्य' को स्पष्ट करने के लिए ही हुआ है।
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चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समोत्ति णिट्ठिो। मोहक्खोहविहीणो परिणामो अप्पणो हि समो ॥
(प्रव. 1/7) निश्चय से चारित्र धर्म को कहते हैं, शम अथवा साम्यभाव को धर्म कहा है, और मोह- मिथ्या दर्शन तथा क्षोभ- राग द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम ही शम अथवा ॥ साम्यभाव कहलाता है।
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O अहिंसा-यग आदि का अनुछानः ध्यान-योग का अंग
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{1126 इहाहिंसादयः पञ्च सुप्रसिद्धा यमाः सताम्। अपरिग्रहपर्यन्तास्तथेच्छादिचतुर्विधाः ॥
(यो.दृ.स. 214) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह- ये पांच यम साधकों में सुप्रसिद्धसुप्रचलित हैं। इनमें अहिंसा से अपरिग्रह तक प्रत्येक के इच्छायम, प्रवृत्तियम, स्थिरयम म तथा सिद्धियम के रूप में चार-चार भेद हैं। ये चारों भेद अहिंसा आदि यमों की तरतमता ' या विकासकोटि की दृष्टि से हैं, उनके क्रमिक अभिवर्धन के सूचक हैं।
इन भेदों के आधार पर निम्नांकित रूप में यम बीस प्रकार के होते हैं।
अहिंसा:__ 1. इच्छा-अहिंसा, 2. प्रवृत्ति-अहिंसा, 3. स्थिर-अहिंसा, 4. सिद्धि-अहिंसा। '
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अहिंसा-विश्वकोश।455)