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{1129) विपक्षचिन्तारहितं यमपालनमेव तत् । तत्स्थैर्यमिह विज्ञेयं तृतीयो यम एव हि ॥
(यो.दृ.स. 217) ___प्रवृत्तियम के अंतर्गत साधक अहिंसा आदि के परिपालन में प्रवृत्त तो हो जाता है, किंतु अतिचार, दोष, विघ्न आदि का भय बना रहता है। स्थिरयम में वैसा नहीं होता। साधक के 卐 अन्तर्मन में इतनी स्थिरता व्याप्त हो जाती है कि वह विपक्ष-अतिचाररूप कण्टक-विन,
हिंसादिरूप ज्वर, विघ्न तथा मतिमोह या मिथ्यात्वरूप दिङ्मोह-विघ्न आदि की चिंता से रहित म हो जाता है। ये तथा दूसरे विघ्न, दोष आदि उसके मार्ग में अवरोध उत्पन्न नहीं कर पाते।
O अहिंसक वातावरण का निर्माता: ध्यानयोगी श्रमण
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(1130) परार्थसाधकं त्वेतत्सिद्धिः शुद्धान्तरात्मनः। अचिन्त्यशक्तियोगेन चतुर्थो यम एव तु ॥
(यो.दृ.स. 218) शुद्ध अंतरात्मा की अचिन्त्य शक्ति के योग से परार्थ-साधक-दूसरों का उपकार साधने वाला यम 'सिद्धियम' है।
[जीवन में क्रमशः उत्तरोत्तर विकास पाते अहिंसा आदि यम इतनी उत्कृष्ट कोटि में पहुंच जाते हैं कि । साधक में अपने आप एक दिव्य शक्ति का उद्रेक हो जाता है। उसके कुछ बोले बिना किए बिना, केवल उसकी卐
सन्निधिमात्र से, उपस्थित प्राणियों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे स्वयं बदल जाते हैं, उनकी दुर्वृत्ति छूट जाती है। यमों ॐ के सिद्ध हो जाने से दृष्ट फलित क्या-क्या होते हैं, महर्षि पंतजलि ने इस सम्बन्ध में अपने योगसूत्र में विशद चर्चा
की है। उदाहरणार्थ, अहिंसा यम के सिद्ध हो जाने पर उनके अनुसार अहिंसक योगी के समीप के वातावरण में अहिंसा ॐ इतनी व्याप्त हो जाती है कि जन्म से परस्पर वैर रखने वाले प्राणी भी वहां स्वयं आपस का वैर छोड़ देते हैं।]
{1131) शाम्यन्ति जन्तवः क्रूरा बद्धवैराः परस्परम्। अपि स्वार्थप्रवृत्तस्य मुनेः साम्यप्रभावतः॥
___(ज्ञा. 22/20/1166) अपने आत्मप्रयोजन की सिद्धि में प्रवृत्त हुए मुनि के साम्यभाव के प्रभाव से परस्पर में वैरभाव को रखने वाले दुष्ट जीव भी शान्ति को प्राप्त होते हैं- जातिगत दुष्ट स्वभाव को
छोड़ देते हैं। FREELELLELELELELATEURUELLANELAIEEEEEEEEEELFLELFRELEELA
अहिंसा-विश्वकोश/457]
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