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{1132) भजन्ति जन्तवो मैत्र्यमन्योन्यं त्यक्तमत्सराः। समत्वालम्बिनां प्राप्य पादपद्मार्चितां क्षितिम् ॥ .
(ज्ञा. 22/21/1167) साम्यभाव का आश्रय लेने वाले मुनियों के चरण-कमलों से पूजित ( अधिष्ठित) ॐ पृथ्वी को पाकर प्राणी परस्पर में मत्सरता (द्वेष व ईर्ष्या) छोड़ कर मित्रता को प्राप्त होते हैं।
{1133) शाम्यन्ति योगिभिः कूरा जन्तवो नेति शंक्यते । दावदीप्तमिवारण्यं यथा वृष्टैर्बलाहकैः॥
(ज्ञा. 22/22/1168) ___ दावानल से प्रज्वलित वन जिस प्रकार वर्षा को प्राप्त हुए मेघों के प्रभाव से शान्त हो जाता है, उसी प्रकार साम्यभाव को प्राप्त हुए योगियों के प्रभाव से दुष्ट जीव अपनी क्रूरता 卐 को छोड़कर शान्त हो जाते हैं, इसमें कोई भी सन्देह नहीं है।
{1134) भवन्त्यतिप्रसन्नानि कश्मलान्यपि देहिनाम्। चेतांसि योगिसंसर्गेऽगस्त्ययोगे जलं यथा ॥
__ (ज्ञा. 22/23/1169) जिस प्रकार अगस्त्य तारे के संयोग से बरसात का मलिन जल निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार योगियों के संसर्ग से प्राणियों के मलिन मन भी अत्यन्त निर्मल हो जाते हैं।
[1135) निह्यन्ति जन्तवो नित्यं, वैरिणोऽपि परस्परम्। अपि स्वार्थकृते साम्यभाजः साधोः प्रभावतः॥
(है. योग. 4/54) ___ यद्यपि साधु अपने स्वार्थ के लिए समत्व का सेवन करते हैं; फिर भी समभाव की है। महिमा ऐसी अद्भुत है कि उसके प्रभाव से नित्य वैर रखने वाले सर्प-नकुल जैसे जीव भी 卐 परस्पर प्रेम-भाव धारण कर लेते हैं।
[जैन संस्कृति खण्ड/458