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{1116) अस्य घातो जयोऽन्यस्य समरे जायतामिति । स्मरत्यङ्गी तदप्याहू रौद्रमध्यात्मवेदिनः॥
- (ज्ञा. 24/9/1231) युद्ध में अमुक प्राणी का घात हो तथा दूसरे की जीत हो, इस प्रकार से जो स्मरण (चिन्तन) किया जाता है उसको भी अध्यात्म के वेत्ता जन 'रौद्र ध्यान' कहते हैं।
{1117) अनानृशंस्यं हिंसोपकरणादानतत्कथाः। निसर्गहिंस्रता चेति लिङ्गान्यस्य स्मृतानि वै॥ मृषानन्दो मृषावादैरतिसन्धानचिन्तनम्। वाक्पारुष्यादिलिङ्गं तद् द्वितीयं रौद्रमिष्यते॥
__ (आ. पु. 21/49-50) क्रूर होना, हिंसा के उपकरण तलवार आदि को धारण करना, हिंसा की ही कथा ) करना और स्वभाव से ही हिंसक होना- ये हिंसानन्द रौद्रध्यान के चिह्न माने गये हैं। झूठ
बोल कर लोगों को धोखा देने का चिन्तवन करना- यह मृषानन्द नाम का दूसरा रौद्रध्यान 卐 है तथा कठोर वचन बोलना आदि इसके बाह्य चिह्न हैं।
[1118) अनारतं निष्करुणस्वभावः स्वभावतः क्रोधकषायदीप्तः। मदोद्धतः पापमतिः कुशीलः स्यानास्तिको यः स हि रौद्रधामा॥
(ज्ञा. 24/5/1227) ___ जो जीव निरन्तर क्रूर स्वभाव से संयुक्त, स्वभावतः क्रोधकषाय से सन्तप्त, अभिमान है 卐 में चूर रहने वाला, पापबुद्धि, दुराचारी और नास्तिक (लोक-परलोक को न मानने वाला)
होता है, उसे रौद्रध्यान का स्थान (रौद्रध्यानी) समझना चाहिए।
PLELELEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER [जैन संस्कृति खण्ड/452