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तालियंटेण पत्तेण साहाविहुयणेण वा। न वीएज अप्पणो कायं, बाहिरं वा वि पोग्गलं ॥ (9)
___ (दशवै. 8/397) ___ (साधु या साध्वी) ताड़ के पंखे से, पत्ते से, वृक्ष की शाखा से, अथवा सामान्य पंखे ॥ (व्यजन) से अपने शरीर को अथवा बाह्य (गर्म दूध आदि) पुद्गल (पदार्थ) को भी हवा न करे। (9)
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{1078) जाइं च वुडिंढ च विणासयंते बीयाइ अस्संजय आयदंडे। अहाहु से लोए अणज्जधम्मे बीयाइ जे हिंसइ आयसाते॥
___(सू.कृ. 1/7/9) जो वनस्पति के जीवों की उत्पत्ति, वृद्धि और और बीजों का विनाश करता है, वह असंयमी मनुष्य अपने आपको दंडित करता है। जो अपने सुख के लिए बीजों का विनाश करता है, उसे अनार्य-धर्मा कहा गया है।
{1079) रात्रौ भ्रमणे षड्जीवनिकायवधः।
(भग. आ. विजयो. 611) रात्रि में साधु भ्रमण करे तो छह काय के प्राणियों का घात होता है।
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गब्भाइ मिजंति बुयाबुयाणा णरा परे पंचसिहा कुमारा। जुवाणगा मज्झिम थेरगा य चयंति ते आउखए पलीणा॥
(सू.कृ. 1/7/10) (वनस्पति की हिंसा करने वाले) कुछ गर्भ में ही मर जाते हैं। कुछ बोलने और न # बोलने की स्थिति में पंचशिख कुमार होकर, कुछ युवा, अधेड़ और बूढे होकर मर जाते है की हैं। ये आयु के क्षीण होने पर किसी भी अवस्था में जीवन से च्युत होकर प्रलीन हो जाते हैं।
अहिंसा-विश्वकोश/4391