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{1074) जदि कुणदि कायखेदं वेजावच्चत्थमुजदो समणो। ण हवदि हवदि अगारी धम्मो सो सावयाणं से ॥
(प्रव. 3/50) यदि वैयावृत्त्य के लिए उद्यत हुआ साधु षट्कायिक जीवों की हिंसा करता है तो वह मुनि नहीं है। यह तो श्रावकों का धर्म है।
[यद्यपि वैयावृत्त्य अन्तरङ्ग तप है और शुभोपयोगी मुनियों के कर्तव्यों में से एक कर्तव्य है तथापि वे उस ॐ प्रकार की वैयावृत्त्य नहीं करते जिसमें कि षट्कायिक जीवों की विराधना हो। विराधना-पूर्वक वैयावृत्त्य करना श्रावकों 3 का धर्म है, न कि मुनियों का।]
(1075) ___ इच्चेसिं छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभेजा, नेवऽन्नेहिं दंडं म समारंभावेजा, दंडं समारंभंते वि अन्ने न समणुजाणेजा।
(दशवै. 4/41) (समस्त प्राणी सुख के अभिलाषी हैं) इसलिए इन छह जीविनिकायों के प्रति ॐ स्वयं दण्ड-समारम्भ न करे, दूसरों से दण्ड-समारम्भ न करावे और दण्डसमारम्भ करने
वाले अन्य का अनुमोदन भी न करे।
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{1076) हरियाणि भूयाणि विलंबगाणि आहार-देहाइं पुढो सियाई। जे छिंदई आतसुहं पडुच्च पागन्भि-पण्णो बहुणं तिवाती ।।
___(सू.कृ. 1/7/8) वनस्पति जीव हैं। वे जन्म से मृत्यु पर्यन्त नाना अवस्थाओं को धारण करते हैं। वे आहार से उपचित होते हैं। वे (वनस्पति-जीव) मूल, स्कंध आदि में पृथक्-पृथक् होते हैं । जो अपने सुख के लिए उनका छेदन करता है, यह ढीठ प्रज्ञा वाला बहुत जीवों 卐 卐 का वध करता है।
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