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(1066)
तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण - माणणपूयणाए जाती - मरण - मोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव तसकायसत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा तसकायसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा तसकायसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति ।
तं से अहिताए, तं से अबोधीए ।
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मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं भी त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता
इस विषय में भगवान ने परिज्ञा/ विवेक का निरूपण किया है:
कोई मनुष्य इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और
( आचा. 1/1/6 सू. 51 )
है, दूसरों से हिंसा करवाता है तथा हिंसा करते हुए का अनुमोदन भी करता है । यह हिंसा
उसके अहित के लिए होती है, अबोधि के लिए होती है।
है,
बहुत
(1067)
जल - धन्ननिस्सिया जीवा पुढवी - कट्ठनिस्सिया ।
हम्मन्ति भत्तपाणेसु तम्हा भिक्खू न पायए ॥
भक्त और पान के पकाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का वध होता है, अतः भिक्षु न पकवाए।
(उत्त. 35/11 )
(1068)
विसप्पे सव्वओ धारे बहुपाणविणासणे ।
नत्थि जोइसमे सत्थे तम्हा जोइं न दीव ॥
(उत्त. 35/12)
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अनि के समान दूसरा शस्त्र नहीं है, वह सभी ओर से प्राणिनाशक तीक्ष्ण धार से युक्त
अधिक प्राणियों की विनाशक है, अतः भिक्षु अग्नि न जलाए ।
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अहिंसा - विश्वकोश | 435 )