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EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP 卐 मनुष्य को, मृग को, भैंसे को , पशु या पक्षी को, सर्प को या किसी जलचर जन्तु को जाते है
हुए देखा है? यदि देखा हो तो हमें बतलाएं कि वे किस ओर गए हैं, हमें दिखाओ।" ऐसा ।।
कहने पर साधु न तो उन्हें कुछ बतलाए, न मार्गदर्शन करे, न ही उनकी बात को स्वीकार 卐 करे, बल्कि कोई उत्तर न देकर उदासीनता-पूर्वक मौन रहे। अथवा जानता हुआ भी (उपेक्षा 卐 卐 भाव से) मैं नहीं जानता, ऐसा कहे। फिर यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार करे। (510) .
(1011) 卐 ते णं आमोसगा सयं करणिजं ति कटु अक्कोसंति वा जाव उद्दवेंति वा,卐 वत्थं वा अच्छिदेज वा जाव परिट्ठवेज वा, तं णो गामसंसारियं कुज्जा, णो रायसंसारियं
कुज्जा, णो परं उवसंकमित्तु बूया- आउसंतो गाहावती! एते खलु आमोसगा उवकरण卐 पडियाए सयं करणिज्जं ति कटु अक्कोसंति वा जाव परिट्ठवेंति वा। एतप्पगारं ॥ जमणं वा वई वा णो पुरतो कटु विहरेजा अप्पुस्सुंए जाव समाहीए ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइज्जेजा।
(आचा. 2/3/3 सू. 518) यदि चोर परिस्थिति अनुसार तथा अपने स्वभावानुरूप अपना (चौर्य) कर्म करते ) ज हुए साधु को गाली-गलौज करें, अपशब्द कहें, मारें-पीटें, हैरान करें, यहां तक कि उसका वध करने का प्रयत्न करें, और उसके वस्त्रादि को फाड़ डालें, तोड़फोड़ कर दूर फेंक दें, तो
भी वह साधु ग्राम में जाकर लोगों से उस बात को न कहे, न ही राजा या सरकार के आगे 卐 फरियाद करे, न ही किसी गृहस्थ के पास जाकर कहे कि 'आयुष्मान् गृहस्थ! इन चोरों 卐 (लुटेरों) ने हमारे उपकरण छीनने के लिए अथवा करणीय कृत्य जान कर हमें कोसा है,
मारा-पीटा है, हमें हैरान किया है, हमारे उपकरणादि नष्ट करके दूर फेंक दिये हैं।' ऐसे
कुविचारों को साधु मन में भी न लाए और न वचन से व्यक्त करे। किन्तु निर्भय, निर्द्वन्द्व और 卐 अनासक्त होकर आत्म-भाव में लीन होकर शरीर और उपकरणों का व्युत्सर्ग कर दे और 卐 राग-द्वेष रहित होकर समाधिभाव में विचरण करे।
{1012 स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च। वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनं मौनम् ॥
(पद्म. पं. 1/91) मुनियों को चाहिए कि वे स्वपरहितकारी, अमृत-तुल्य सत्य का ही सदा भाषण करें ) ॐ या फिर बुद्धि-रूपी धन को धारण कर 'मौन' ही रहें।
יפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפיפתפתפתפתפתפתפתפיפּהכתב ש
[जैन संस्कृति खण्ड/406