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F ESFYFFFFFFFFFFF959 पृथ्वी (-काय), अप्काय, अनिकाय, वायुकाय तथा तृण, वृक्ष और बीज (रूप वनस्पतिकाय) [अथवा बीजपर्यन्त तृण, वृक्ष] तथा त्रस प्राणी, ये जीव हैं, ऐसा महर्षि । (महावीर) ने कहा है। (2) ॥ (साधु या साध्वी को) उन (स्थावर-त्रस जीवों) के प्रति मन, वचन और काया से है
सदा अहिंसामय व्यापारपूर्वक ही रहना चाहिए। इस प्रकार (अहिंसक वृत्ति से रहने वाला ही) संयत (संयमी) होता है। (3)
सुसमाहित संयमी (साधु या साध्वी) तीन करण व तीन योग से (सचित्त) पृथ्वी, म भित्ति (दरार), (सचित्त) शिला अथवा मिट्टी का, ढेले का स्वयं भेदन न करे और न उसे ॐ कुरेदे, (दूसरों से भेदन न कराए, न ही कुरेदाए तथा अन्य कोई इनका भेदन करता हो या कुरेदता हो तो उसका अनुमोदन मन-वचन-काया से न करे)। (4)
(साधु या साध्वी) शुद्ध (अशस्त्रपरिणत-सचित्त) पृथ्वी और सचित्त रज से संसृष्ट (भरे हुए) आसन पर न बैठे। (यदि बैठना हो तो) जिसकी वह भूमि हो, उससे आज्ञा (अवग्रह) मांग कर तथा उसका प्रमार्जन करके (उस अचित्त भूमि पर) बैठे। (5)
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{1022) पुढवी य आऊ अगणी य वाऊ तण रुक्ख बीया य तसा य पाणा। जे अंडया जे य जराउ पाणा संसेयया जे रसयाभिहाणा ॥ एताई कायाई पवेइयाई एतेसु जाणे पडिलेह सायं । एतेहि काएहि य आयदंडे पुणो-पुणो विप्परियासुवेति ॥
___(सू.कृ. 1/7/1-2) पृथ्वी, जल, तेजस् (अग्नि), वायु, तृण, वृक्ष, बीज तथा त्रस प्राणी- जो अंडज, * जरायुज, संस्वेदज और रसज- इन नाम वाले हैं। जीवों के ये निकाय कहे गए हैं। पुरुष! :
तू उनके विषय में जान और उनके सुख (दुःख) को देख। जो उन जीव-निकायों की हिंसा म करता है, वह बार-बार विपर्यास (जन्म-मरण)को प्राप्त होता है।
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___ मेहावी व सयं छज्जीवणिकायसत्थं समारं भेजा, णेवऽण्णे हिं छज्जीवणिकायसत्थं सभारंभावेज्जा, णेवऽण्णे छज्जीवणिकायसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा।
जस्सेते छज्जीवणिकायसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी #परिण्णायकम्मे त्ति बेमि।
(आचा. 1/1/7 सू. 62)卐
[जैन संस्कृति खण्ड/410