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SEEEEEEEEEEEEEEEEEEma वह हिंसा, उसके अहित के लिए होती है। वह हिंसा, उसकी अबोधि के लिए होती है। वह अहिंसा-साधक, हिंसा को भली प्रकार से समझता हुआ संयम में सुस्थिर हो जाता है।
भगवान के या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुन कर उन्हें यह ज्ञात होता है कि यह हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, नरक है।
फिर भी मनुष्य हिंसा में आसक्त हुआ, विविध प्रकार के शस्त्रों से वायुकाय की हिंसा ॥ करता है। वायुकाय की हिंसा करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की हिंसा करता है। ___मैं कहता हूं:-संपातिम-उड़ने वाले प्राणी होते हैं, वे वायु से प्रताड़ित होकर नीचे
गिर जाते हैं। # वे प्राणी वायु का स्पर्श/आघात होने से सिकुड़ जाते हैं। जब वे वायु-स्पर्श से ॥ 卐 संघातित होते/सिकुड़ जाते हैं, तब वे मूछित हो जाते हैं। जब वे जीव मूर्छा को प्राप्त होते 卐 卐 हैं तो वहां मर भी जाते हैं। जो यहां वायुकायिक जीवों का समारंभ करता है, वह इन आरंभों ।
से वास्तव में अनजान है। जो वायुकायिक जीवों पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता, वास्तव में
उसने आरंभ (के स्वरूप) को जान लिया है। यह जानकर बुद्धिमान मनुष्य स्वयं वायुकायम 卐 का समारंभ न करे। दूसरों से वायुकाय का समारंभ न करवाए। वायुकाय का समारंभ करने 卐 ॐ वालों का अनुमोदन न करे। जिसने वायुकाय के शस्त्र-समारंभ को जान लिया है, वही मुनि
परिज्ञातकर्मा (हिंसा का त्यागी) है। ऐसा मैं कहता हूं।
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एत्थ सत्थं समारभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति। एत्थ सत्थं असमारभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाता भवंति।
जस्स एते अगणिकम्मसमारंभा परिण्णाता भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि।
___ (आचा. 1/1/4/सू. 38-39) जो अग्निकाय के जीवों पर शस्त्र-प्रयोग करता है, वह इन आरंभ-समारंभ क्रियाओं के कटु परिणामों से अपरिज्ञात होता है, अर्थात् वह हिंसा के दुःखद परिणामों से छूट नहीं सकता है।
जो अग्निकाय पर शस्त्र-समारंभ नहीं करता है, वास्तव में वह आरंभ का ज्ञाता अर्थात् हिंसा से मुक्त हो जाता है।
जिसने यह अग्नि-कर्म-समारंभ भली प्रकार समझ लिया है, वही मुनि है, वही परिज्ञात-कर्मा (कर्म का ज्ञाता और त्यागी)है।
ऐसा मैं कहता हूं। E FERESENTERESENTERESTHESENT
अहिंसा-विश्वकोश।425]
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