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(1054)
स्नानेन उष्णोदकेन शीतजलेन सौवीरकादिना वा बिलस्था धात्री क्षुद्रविवरस्थाः इतरेऽपि स्वल्पकायाः कुन्थुपिपीलिकादयो वा नश्यन्ति । तथा चोक्तम्
हुमा संतिपाणा खु पासेसु अ बिलेसु अ । सिहायंतो यतो भिक्खू विकट्ठे णोपपीडए ॥ ण सिन्हायंति तम्हा ते सीदुसणोदगेण वि । जावजीवं वदं घोरं अन्हाणममधिद्विदं ॥
(भग. आ. विजयो. 611)
गर्म जल, ठंडे जल अथवा सौवीरक आदि से स्नान करने से पृथ्वी के बिलों में स्थित
प्राणी अथवा अन्य कुन्थु, चींटी आदि क्षुद्र जीव मर जाते हैं। कहा है
'बिलों में तथा आस-पास में सूक्ष्म जन्तु रहते हैं। यदि भिक्षु स्नान करे तो वे पीड़ित
होते हैं। इसलिए वे भिक्षु ठंडे या गर्म जल से या कांजी से स्नान नहीं करते । वे जीवन पर्यन्त ♛ घोर अस्नानव्रत को धारण करते हैं । '
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(1055)
सीओदगं न सेवेज्जा सिला वुद्धं हिमाणि य । उसिणोदगं तत्तफासुयं पडिगाहेज्ज संजए ॥ ( 6 )
उदओल्लं अप्पणी कायं नेव पुंछे न संलिहे । समुप्पेह तहाभूयं नो णं संघट्टए मुणी ॥ (7)
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(दशवै. 8 / 394-395)
संयमी (साधु या साध्वी) शीत (सचित्त) उदक (जल), ओले, वर्षा के जल और
हिम (बर्फ) का सेवन न करे। (आवश्यकता पड़ने पर अच्छी तरह) तपा हुआ (तप्त) गर्म जल तथा प्रासु (वर्णादिपरिणत) जल ही ग्रहण करे ( और सेवन करे) । (6) मुनि सचित्त जल से भीगे हुए अपने शरीर को न तो पोंछे और न ही (हाथों से) मले। तथाभूत (सचित्त जल से भीगे ) शरीर को देखकर, उसका ( जरा भी) स्पर्श (संघट्टा) न करे। (7)
(1056)
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सीओदगसमारंभे मत्तधोयणछड्डणे । जाईं छण्णंति भूयाई, तत्थ दिट्ठो असंजमो ॥ (51)
(दशवै. 6/314)
(गृहस्थ के द्वारा) उन बर्तनों को सचित्त (शीत) जल से धोने में और बर्तनों के धोए
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हुए पानी को डालने में जो प्राणी निहत ( हताहत ) होते हैं, उसमें (तीर्थंकरों ने) असंयम
देखा है।
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अहिंसा - विश्वकोश | 429]
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