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लजमाणा पुढो पास। अणगारा मो'त्ति एगे पवयमाणा,जमिण विरूवरूवेहिं ' ॐ सत्थेहिं वणस्सतिकम्मसमारंभेणं वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए जाती-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव वणस्सतिसत्थं ॐ समारंभति, अण्णेहिं वा वणस्सतिसत्थं समारंभावेति, अण्णे वा वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे समणुजाणति।।
तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णायं भवति-एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु णिरए। र इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वणस्सतिकम्मसमारंभेणं ॐ वणस्सतिसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति।
__ (आचा. 1/1/5/सू. 42-44) तू देख! ज्ञानी हिंसा से लज्जित/विरत रहते हैं। हम गृह-त्यागी हैं,' यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से, वनस्पतिकायिक जीवों का समारंभ करते हैं। ॐ वनस्पतिकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार की जीवों की भी हिंसा करते हैं।
इस विषय में भगवान ने परिज्ञा/विवेक का उपदेश किया है-इस जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान, पूजा के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, दुःख का प्रतीकार करने के लिए, वह (तथाकथित साधु) स्वयं वनस्पतिकायिक जीवों की हिंसा करता है, दूसरों से हिंसा करवाता है, हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है।
यह (हिंसा-करना, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है। यह उसकी अबोधि के लिए होता है। .
यह समझता हुआ साधक संयम में स्थिर हो जाए। भगवान से या त्यागी अनगारों F के समीप सुनकर उसे इस बात का ज्ञान हो जाता है-यह (हिंसा) ग्रन्थि है, यह मोह है, यह ॐ मृत्यु है, यह नरक है।
फिर भी मनुष्य इसमें आसक्त हुआ, नाना प्रकार के शस्त्रों से वनस्पतिकाय का समारंभ करता है और वनस्पतिकाय का समारंभ करता हुआ अन्य अनेक प्रकार के जीवों की ॐ भी हिंसा करता है।
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अहिंसा-विश्वकोश/4311
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