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EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEFFFFFFFERE 卐 में तत्पर हो जाये।
तीर्थंकर आदि प्रत्यक्षज्ञानी अथवा श्रुतज्ञानी मुनियों के निकट से सुन कर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है कि यह जीव-हिंसा-'ग्रन्थि' है, यह मोह है, यह मृत्यु है, 卐 यह नरक है।
फिर भी जीवन, मान, वंदना आदि हेतुओं में आसक्त हुए मनुष्य विविध प्रकार के शस्त्रों से अग्निकाय का समारंभ करते हैं, और अग्निकाय का समारंभ करते हुए अन्य अनेक
प्रकार के प्राणों/जीवों की भी हिंसा करते हैं। म मैं कहता हूं- बहुत से प्राणी-पृथ्वी, तृण, पत्र, काष्ठ, गोबर और कूड़ा-कचड़ा ) ॐ आदि के आश्रित रहते हैं।
कुछ संपातिम/उड़ने वाले प्राणी (कीट, पतंगे, पक्षी आदि)होते हैं जो उड़ते-उड़ते नीचे गिर जाते हैं।
ये प्राणी अग्नि का स्पर्श पाकर संघात (शरीर के संकोच)को प्राप्त होते हैं। शरीर का म संघात होने पर अग्नि की ऊमा से मूछित हो जाते हैं। मूछित हो जाने के बाद मृत्यु को भी
प्राप्त हो जाते हैं।
{1047) ___एत्थ सत्थं समारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा अपरिण्णाता भवंति। एत्थ सत्थं असमारंभमाणस्स इच्चेते आरंभा परिण्णाया भवंति।
तं परिण्णाय मेहावी णेव सयं वणस्सतिसत्थं समारंभेज्जा, णेवऽण्णे भवणस्सतिसत्थं समणुजाणेजा।
जस्सेते वणस्सतिसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे त्ति बेमि।
(आचा. 1/1/5/सू. 46-48) जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र का समारंभ करता है, वह उन आरंभों/आरंभजन्य ॐ कटुफलों से अनजान रहता है। (जानता हुआ भी अनजान है।)
जो वनस्पतिकायिक जीवों पर शस्त्र प्रयोग नहीं करता, उसके लिए आरंभ परिज्ञात है।
यह जान कर मेधावी स्वयं वनस्पति का समारंभ न करे, न दूसरों से समारंभ 卐 करवाए और न समारंभ करने वालों का अनुमोदन करे।
जिसको यह वनस्पति-सम्बन्धी समारंभ परिज्ञात होते हैं, वही परिज्ञात-कर्मा (हिंसात्यागी) मुनि होता है। EEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश/423)
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