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{1046) लजमाणा पुढो पास।
'अणगारा मो' त्ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं . अगणिकम्मसमारंभेणं अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति।
तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता-इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणण-पूयणाए जातीमरणमोयणाए दुक्खपडिघातहेतुं से सयमेव अगणिसत्थं जसमारभति, अण्णेहिं वा अगणिसत्थं समारभावेति, अण्णे वा अगणिसत्थं समारभमाणे : समणुजाणति।
तं से अहिताए, तं से अबोधीए। से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए।
सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा अंतिए इहमेगेसिं णातं भवति- एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए।
इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं अगणिकम्मसमारंभेणं ॐ अगणिसत्थं समारंभमाणे अण्णे वऽणेगरूवे पाणे विहिंसति।
से बेमि-संति पाणा पुढविणिस्सिता तणणिस्सिता पत्तणिस्सिता कट्ठणिस्सिता गोमयणिस्सिता कयवरणिस्सिता।
संति संपातिमा पाणा आहच्च संपयंति य।
अगणिं च खलु पुट्ठा एगे संघातमावजंति। जे तत्थ संघातमावजंति ते तत्थ परिवायावजंति। जे तत्थ परियावजंति ते तत्थ उद्दायंति।।
____ (आचा. 1/1/4/सू. 34-37) + तू देख! संयमी पुरुष जीव-हिंसा में लज्जा/ग्लानि/संकोच का अनुभव करते हैं, और
उनको भी देख, जो 'हम अणगार-गृह त्यागी साधु हैं'-यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के
शस्त्रों/उपकरणों से अग्निकाय की हिंसा करते हैं। अग्निकाय के जीवों की हिंसा करते हुए 卐 * अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिंसा करते हैं। - इस विषय में भगवान ने परिज्ञा/विवेक-ज्ञान का निरूपण किया है। कुछ मनुष्य, इस 卐 जीवन के लिए, प्रशंसा, सन्मान, पूजा के लिए, जन्म-मरण और मोक्ष के निमित्त, तथा दुःखों 卐 का प्रतीकार करने के लिए, स्वयं अग्निकाय का समारंभ करते हैं। दूसरों से अग्निकाय का समारंभ करवाते हैं। अग्निकाय का समारंभ करने वालों (दूसरों) का अनुमोदन भी करते हैं।
यह (हिंसा) उनके अहित के लिए होती है। यह उनकी अबोधि के लिए होती है।
वह (साधक)उस (हिंसा के परिणाम)को भली प्रकार समझे और संयम-साधना SHREEFFERENEFFERHTELESEEEEEEEEEEEEEEET
[जैन संस्कृति खण्ड/422
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