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{1042) उजालओ पाणऽतिवातएजा णिव्वावओ अगणिऽतिवातएजा।। तम्हा उ मेहावि समिक्ख धम्मण पंडिते अगणि समारभिज्जा॥
(सू.कृ. 1/7/6) अग्नि को जलाने वाला प्राणियों का वध करता है और बुझाने वाला भी उनका वध करता है। इसलिए मेधावी पंडित मुनि-धर्म को समझ कर अग्नि का समारंभ न करे।
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{1043}
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जायतेयं न इच्छंति पावगं जलइत्तए। तिक्खमन्नयरं सत्थं सव्वओ वि दुरासयं ॥ (32) पाईणं पडिणं वा वि उड्ढे अणुदिसामवि। अहे दाहिणओ वावि दहे उत्तरओ वि य॥ (33) भूयाणमेसमाघाओ हव्ववाहो, न संसओ। तं पईव-पयावट्ठा संजया किंचि नाऽऽरभे ॥ (34) तम्हा एयं वियाणित्ता दोसं दोग्गइवड् ढणं। तेउकायसमारंभं जावजीवाए वजए॥ (35)
___ (दशवै. 6/295-298) (साधु-साध्वी) जाततेज-अग्नि को जलाने की इच्छा नहीं करते, क्योंकि वह (अन्य प्राणियों के लिए) दूसरे शस्त्रों की अपेक्षा तीक्ष्ण शस्त्र तथा सब ओर से दुराश्रय 卐 है। (32)
- वह (अग्नि) पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, उत्तर और ऊर्ध्वदिशा या अधोदिशा और विदिशाओं में (सभी जीवों का) दहन करती है। (33)
निःसन्देह यह हव्यवाह (अग्नि) प्राणियों के लिए आघातजनक है। अत: संयमी 卐 (साधु-साध्वी) प्रकाश (प्रदीपन)और तप (प्रतापन) के लिए उस (अग्नि) का किंचिन्मात्र ॥ भी आरम्भ न करें। (34)
(अग्नि जीवों के लिए विघातक है), इसलिए इसे दुर्गतिवर्द्धक दोष जानकर * (साधुवर्ग) जीवन-पर्यन्त अग्निकाय के समारम्भ का त्याग करे। (35)
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FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/420