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{1039) से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए। सोच्चा भगवतो अणगाराणं वा इहमेगेसिं जी णातं भवति-एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए। इच्चत्थं गढिए लोए, जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं पुढविकम्मसमारंभेणं पुढविसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति।
(आचा. 1/1/2/सू. 14) वह साधक (संयमी) हिंसा के उक्त दुष्परिणामों को अच्छी तरह समझता हुआ, म आदानीय-संयम-साधना में तत्पर हो जाता है। कुछ मनुष्यों को भगवान के या अनगार 卐 मुनियों के समीप धर्म सुनकर यह ज्ञात होता है कि-यह जीव-हिंसा 'ग्रन्थि' है, यह मोह, में यह मृत्यु है और यही नरक है।
(फिर भी) जो मनुष्य सुख आदि के लिए जीवहिंसा में आसक्त होता है, वह नाना ॐ प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी-सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की + हिंसा करता है। और तब वह न केवल पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, अपितु अन्य'
नानाप्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है।
{1040) छज्जीवकाए असमारभन्ता मोसं अदत्तं च असेवमाणा। परिग्गहं इथिओ माण-मायं एयं परिन्नाय चरन्ति दन्ता॥
(उत्त. 12/41) मन और इन्द्रियों को संयमित रखने वाले मुनि पृथिवी आदि छह जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते हैं, असत्य नहीं बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं, परिग्रह, स्त्री, मान और माया 卐 को स्वरूपतः जान कर एवं उन्हें छोड़ कर विचरण करते हैं।
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{1041} तहेव भत्तपाणेसु पयण-पयावणेसु य। पाण-भूयदयट्ठाए न पये न पयावए॥
(उत्त. 35/10) इसी प्रकार भक्त-पान (खाद्य व पेय) को पकाने और पकवाने में हिंसा होती है। ॐ अतः प्राणियों-जीवों की दया के लिए न स्वयं पकाए न और दूसरे से पकवाए।
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अहिंसा-विश्वकोश/419]