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: (1032 पडिलेहणं कुणन्तो मिहोकहं कुणइ जणवयकहं वा। देइ वे पच्चक्खाणं वाएइ सयं पडिच्छइ वा॥ पुढवीआउक्काए तेऊवाऊवणस्सइतसाण। पडिलेहणापमत्तो छण्हं पि विराहओ होइ॥
. (उत्त. 27/29-30) प्रतिलेखन करते समय जो मुनि परस्पर वार्तालाप करता है, जनपद की कथा करता 卐 है, प्रत्याख्यान करता है, दूसरों को पढ़ाता है अथवा स्वयं पढ़ता है, वह प्रतिलेखना में प्रमत्त 卐 मुनि पृथ्वी- काय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय-इन छहों 卐
कायों का विराधक-हिंसक होता है।
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(1033) पुढविंना खणे, न खणावए, सीओदगं न पिए, न पियावए। अगणिसत्थं जहा सुनिसियं, तं न जले,न जलावए जे, स भिक्खू ॥ (2)
(दशवै. 10/522) जो (सचित्त) पृथ्वी को नहीं खोदता तथा दूसरों से नहीं खुदवाता, शीत (सचित्त) जल नहीं पीता और न पिलाता है, (खड्ग आदि) शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण अग्नि को न ॐ जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है। (2)
(1034)
पुढवी वि जीवा आऊ वि जीवा पाणा य संपातिम संपयंति। संसेदया कट्ठसमस्सिता य एते दहे अगणि समारभंते॥
(सू.कृ. 1/7/7) पृथ्वी भी जीव हैं। पानी भी जीव है। उड़ने वाले जीव आकर गिरते हैं। संस्वेदज E भी जीव हैं। अग्नि का समारंभ करने वाला इन सब जीवों को जलाता है।
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अहिंसा विश्वकोशा4151