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{1013) मौनमेव हितं पुंसां शश्वत्सर्वार्थसिद्धये। वचो वाति प्रियं तथ्यं सर्वसत्त्वोपकारि यत्।।
(ज्ञा. 9/6/536) पुरुषों के लिए प्रथम तो समस्त प्रयोजनों को सिद्ध करने वाले मौन का ही निरंतर अवलंबन करना हितकारी है, और यदि वचन कहना ही पड़े तो ऐसा कहना चाहिये कि जो सब को अत्यन्त प्यारा हो, सत्य हो और समस्त जनों का हित करने वाला हो।
{1014) सोच्चाणं फरुसा भासा दारुणा गाम-कण्टगा। तुसिणीओ उवेहेजा न ताओ मणसीकरे ॥
__ (उत्त. 2/25) दारुण (असह्य), ग्रामकण्टक-कांटे की तरह चुभने वाली कठोर भाषा को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए।
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जीव-हिसापूर्ण रात्रिभोजन से विरति
(1015) अहो निच्चं तवोकम्मं सव्वबुद्धेहिं वणियं । जा य लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोयणं ॥ (22) संतिमे सुहुमा पाणा तसा अदुव थावरा। जाइं राओ अपासंतो, कहमेसणियं चरे?॥ (23) उदओल्लं बीअसंसत्तं पाणा निव्वडिया महिं। दिया ताई विवज्जेजा, राओ तत्थ कहं चरे?॥ (24) एयं च दोसं दठूणं नायपुत्तेण भासियं । सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोयणं ॥ (25)
(दशवै. 6/285-288) अहो! समस्त तीर्थंकरों (बुद्धों) ने (देह-पालन के लिए) संयम (लजा) के 卐 अनुकूल (सम) वृत्ति और एक बार भोजन (अथवा दिन में ही रागद्वेष रहित होकर आहार
करना), इस नित्य (दैनिक) तपः कर्म का उपदेश दिया है। (22) REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश।4071