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{984) से भिक्खू जं पुण जाणेजा असणं वा अस्सिंपडियाए एगं साहम्मियं समुद्दिस्स' * पाणाइं भूयाइं जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीतं पामिच्चं अच्छेजं अणिसठं
अभिहडं आहट्ठद्देसिय चेतियं सिता तं णो सयं भुंजई, णो वऽन्नेणं भुंजावेति, अन्नं पि भुंजंतं ण समणुजाणई, इति से महता आदाणातो उवसंते उवट्ठिते पडिविरते से
卐 भिक्खू ।
(सू.कृ. 2/1/ सू. 687) यदि वह भिक्षु यह जान जाए कि अमुक श्रावक ने किसी निष्परिग्रह साधर्मिक साधु को दान देने के उद्देश्य से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का आरम्भ करके आहार म बनाया है, अथवा खरीदा है, या किसी से उधार लिया है, अथवा बलात् छीन कर 卐 (अपहरण करके) लिया है, अथवा उसके स्वामी से पूछे बिना ही ले लिया (उसके है - स्वामित्व का नहीं) है, अथवा साधु के सम्मुख लाया हुआ है, अथवा साधु के निमित्त 卐 से बनाया हुआ है, तो ऐसा सदोष आहार वह न ले। कदाचित् भूल से ऐसा सदोष आहार 卐 ले लिया हो तो स्वयं उसका सेवन न करे, दूसरे साधुओं को भी वह आहार न खिलाए,
और न ऐसा सदोष आहार-सेवन करने वाले को अच्छा समझे। इस प्रकार के सदोष ।
आहार के त्याग से वह भिक्षु महान् कर्मों के बंधन से दूर रहता है, वह शुद्ध संयम पालन 卐 में उद्यत और पाप कर्मों से विरत रहता है।
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(985) भूयाइं समारंभ साधू उद्दिस्स जं कडं। तारिसं तु ण गेण्हेज्जा अण्णपाणं सुसंजए॥
(सू.कृ. 1/11/14) जीवों का समारंभ कर साधु के उद्देश्य से जो बनाया गया हो, वैसे अन्न-पान को सुसंयमी मुनि ग्रहण न करे।
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EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES [जैन संस्कृति खण्ड/396