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{978) इमं च णं सव्वजगजीव-रक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं अत्तहियं 卐 पेच्चा-भावियं आगमेसिभदं सु णेयाउयं अकुडिलं अणुत्तरं सव्वदुक्खपावाण वि है उसमणं।
(प्रश्र. 2/1/सू.112) (अहिंसा की आराधना के लिए शुद्ध-निर्दोष भिक्षा आदि के ग्रहण का प्रतिपादक) 卐 यह प्रवचन श्रमण भगवान् महावीर ने जगत् के समस्त जीवों की रक्षा-दया के लिए है ॐ समीचीन रूप में कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोक-आगामी जन्मों में
में शुद्ध फल के रूप में परिणत होने से भाविक है तथा भविष्यत् काल में भी कल्याणकर है। म यह भगवत्प्रवचन शुद्ध-निर्दोष है और दोषों से मुक्त रखने वाला है, न्याययुक्त है- तर्कसंगत म 卐 है और किसी के प्रति अन्यायकारी नहीं है, अकुटिल है अर्थात् मुक्तिप्राप्ति का सरल-सीधा ॥ * मार्ग है, यह अनुत्तर- सर्वोत्तम है तथा समस्त दुःखों और पापों को उपशान्त करने वाला है।
{979) इमं च पुढविदग-अगणि-मारुय-तरुगण-तस-थावर-सव्वभूयसंजमदयट्ठयाए सुद्धं उञ्छं गवेसियव्वं अकयमकारियमणाहूयमणुदिंठें अकीयकडं णवहि य कोडिहिं
सुपरि सुद्धं, दसहि य दो से हिं विप्पमुक्कं , उग्गम-उप्पायणे सणासुद्धं ॐ ववगयचुयचावियत्तदेहं च फासुयं च... भिक्खं गवेसियव्वं।
___ (प्रश्न. 2/1/सू.110) अहिंसा का पालन करने के लिए उद्यत साधु को पृथ्वीकाय, अप्काय, अनिकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय-इन स्थावर और (द्वीन्द्रिय आदि)त्रस, इस प्रकार सभी प्राणियों के 卐 प्रति संयमरूप दया के लिए शुद्ध-निर्दोष भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए। जो आहार साधु ॥
के लिए नहीं बनाया गया हो, दूसरे से नहीं बनवाया गया हो, जो अनाहूत हो अर्थात् गृहस्थ * द्वारा निमंत्रण देकर या पुनः बुलाकर न दिया गया हो, जो अनुद्दिष्ट हो-साधु के निमित्त तैयार है।
न किया गया हो, साधु के उद्देश्य से खरीदा नहीं गया हो, जो नव कोटियों से विशुद्ध हो,
शंकित आदि दश दोषों से सर्वथा रहित हो, जो उद्गम के सोलह, उत्पादना के सोलह और 卐 एषणा के दस (कुल 42) दोषों से रहित हो, जिस देय वस्तु में से आगन्तुक जीव-जन्तु है
स्वतः पृथक् हो गए हों, वनस्पतिकायिक आदि जीव स्वत: या परत:-किसी के द्वारा च्युतमृत हो गए हों, या दाता द्वारा दूर करा दिए गए हों अथवा दाता ने स्वयं दूर कर दिए हों, इस प्रकार जो भिक्षा अचित्त हो, जो शुद्ध अर्थात् भिक्षा-सम्बन्धी अन्य दोषों से रहित हो, ऐसी 卐 भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए।
FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/394