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पुत्तं पिता समारंभ आहारट्ठ असंजए ।
भुंजमाणो वि मेहावी कम्मुणा गोवलिप्पते ॥ मणसा जे पउस्संति चित्तं तेसिं ण विज्जइ ।
अणवजं अतहं तेसिं ण ते संवुडचारिणो ॥ इच्चेयाहिं दिट्ठीहिं सायागारवणिस्सिया । सरणं ति मण्णमाणा सेवंती पावगं जणा ॥
(1) असंयमी गृहस्थ भिक्षु के भोजन के लिए पुत्र (सूअर या बकरे ) को मार कर
(सू. कृ. 1/1/2/55-57)
मांस पकाता है, मेधावी भिक्षु उसे खाता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता ।
(केवल काय - व्यापार से) कर्मोपचय नहीं होता ।
पूर्वोक्त दोनों सिद्धान्त तथ्यपूर्ण नहीं हैं । उक्त सिद्धांतों का प्रतिपादन करने वाले
संवृतचारी नहीं होते - कर्म-बंध के हेतुओं में प्रवृत्त रहते हैं।
(2) जो मन से प्रद्वेष करते हैं- निर्घृण होते हैं उनके कुशल चित्त नहीं होता । 卐
● जीव रक्षा का ध्यानः आदान निक्षेपण व उत्सर्ग रामिति
(992)
हुमा हु संतिपाणा दुप्पेक्खा अक्खिणो अगेज्झा हु ।
तह्मा जीवदयाए पडिलिहणं धारए भिक्खू ॥
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(मूला. 10 / 913)
बहुत से प्राणी सूक्ष्म होने से दिखते नहीं हैं क्योंकि वे चक्षु से भी ग्रहण नहीं
किये जा सकते हैं। इसलिए भिक्षु को चाहिए कि वह जीवदया के लिए 'प्रतिलेखन' धारण करे ।
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इन दृष्टियों (मतों) को स्वीकार कर वे वादी शारीरिक सुख में आसक्त हो जाते हैं ।
वे अपने मत को शरण मानते हुए सामान्य व्यक्ति की भांति पाप का ही सेवन करते हैं। 節
编卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 अहिंसा - विश्वकोश | 3991
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