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{986) म कहिंचि विहरमाणं तं भिक्खं उवसंकमित्तु गाहावती बूया- आउसंतो समणा! ॐ अहं खलु तव अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा वत्थं वा पडिग्गहं वा
कंबलं वा पायपुंछणं वा पाणाई भूताई जीवाई सत्ताई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं #अच्छेज्जं अणिसट्ठ अभिहडं आहट्ट चेतेमि आवसहं वा समुस्सिणामि, से भुंजह 卐 वसह आउसंतो समणा!। म तं भिक्खू गाहावतिं समणसं सवयसं पडियाइक्खे- आउसंतो गाहावती!
णो खलु ते वयणं आढामि, णो खलु ते वयणं परिजाणामि, जो तुमं मम अट्ठाए
असणं वा वत्थं वा पाणाई समारंभ समुद्दिस्स कीयं पामिच्चं अच्छेजं अणिसठं म अभिहडं आहटु चेतेसि आवसहं वा समुस्सिणासि । से विरतो आउसो गाहावती! म एतस्स अकरणयाए।
(आचा. 1/8/2 सू. 204) ___ वह भिक्षु कहीं भी विहार कर रहा हो, उस समय कोई गृहपति उस भिक्षु के पास आकर कहे- आयुष्मान् श्रमण! मैं आपके लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पाद-प्रोंछन, प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ (उपमर्दन) करके उद्देश्य ज से बना रहा हूं या (आपके लिए) खरीद कर, उधार लेकर, किसी से छीन कर, दूसरे की म वस्तु को उसकी बिना अनुमति के लाकर, या घर से लाकर आपको देता हूं अथवा आपके लिए उपाश्रय (आवसथ) बनवा देता हूं। हे आयुष्मान् श्रमण! आप इस (अशन आदि) का उपभोग करें और (उस उपाश्रय में) रहें।
भिक्षु उस सुमनस् (भद्रहृदय) एवं सुवयस (भद्र वचन वाले) गृहपति को निषेध के ॐ स्वर से कहे- आयुष्मान् गृहपति! मैं तुम्हारे इस वचन को आदर नहीं देता, न ही तुम्हारे है
वचन को स्वीकार करता हूं, जो तुम प्राणों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ करके मेरे । लिए अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कम्बल या पाद-प्रोंछन बना रहे हो, या मेरे ही
उद्देश्य से उसे खरीद कर, उधार लेकर, दूसरों से छीन कर, दूसरे की वस्तु उसकी अनुमति 卐 के बिना ला कर अथवा अपने घर से यहां लाकर मुझे देना चाहते हो, मेरे लिए उपाश्रय )
बनवाना चाहते हो। हे आयुष्मान् गृहस्थ! मैं (इस प्रकार के सावध कार्य से सर्वथा) विरत
हो चुका हूं। यह (तुम्हारे द्वारा प्रस्तुत बात)(मेरे लिए)अकरणीय होने से, (मैं स्वीकार नहीं + कर सकता)।
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अहिंसा-विश्वकोश/3971