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{972 संतिमा तहिया भासा जं वइत्ताणुतप्पई। जं छणं तं ण वत्तव्वं एसा आणा णियंठिया॥
___(सू.कृ. 1/9/26) __ कुछ सत्य भाषाएं हैं जिन्हें बोल कर मनुष्य पछताता है। जो हिंसाकारी वचन है, 卐 उसे न बोले। यह निर्ग्रन्थ (महावीर) की आज्ञा है।
{973) होलावायं सहीवायं गोयवायं च णो वए। तुमं तुमं ति अमणुण्णं सव्वसो तं ण वत्तए॥
(सू.कृ. 1/9/27) हे साथी! हे मित्र! हे अमुक-अमुक गोत्र वाले- इस प्रकार के वचन न बोले 卐 (सामान्य व्यक्यिों के लिए) तू-तू- ऐसा अप्रिय वचन भी सर्वथा न कहे।
(सत्य व भाषा समिति में अन्तर)
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{9741 ___ सत्सु प्रशस्तेषु जनेषु साधु वचनं सत्यमित्युच्यते । ननु चैतद् भाषासमितावन्तर्भवति। नैष दोषः; समितौ प्रवर्तमानो मुनिः साधुष्वसाधुषु च भाषाव्यवहारं कुर्वन् हितं मितं च ब्रूयात् अन्यथा रागादनर्थदण्डदोषः स्यादिति ॥
वाक्समितिरित्यर्थः। इह पुनः सन्तः प्रव्रजितास्तद्भक्ता वा तेषु साधु सत्यं । BE ज्ञानचारित्रशिक्षणादिषु बह्वपि कर्तव्यमित्यनुज्ञायते धर्मोपबृंहणार्थम्।
(सर्वा. 916/797) अच्छे पुरुषों के साथ साधु वचन बोलना 'सत्य' है। शंका- इसका भाषासमिति में है के अन्तर्भाव होता है? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि समिति के अनुसार प्रवृत्ति करने के
वाला मुनि साधु और असाधु दोनों प्रकार के मनुष्यों में भाषाव्यवहार करता हुआ हितकारी 2
परिमित वचन बोले, अन्यथा राग होने से अनर्थदण्ड का दोष लगता है, यह वचनसमिति का ॐ अभिप्राय है। किन्तु सत्य धर्म के अनुसार प्रवृत्ति करने वाला मुनि सजन पुरुष, दीक्षित या
उनके भक्तों में साधु सत्य वचन बोलता हुआ भी ज्ञान-चारित्र के शिक्षण आदि के निमित्त से ॐ बहुविध कर्तव्यों की सूचना देता है और यह सब धर्म की अभिवृद्धि के अभिप्राय से करता
है, इसलिए सत्य धर्म का भाषासमिति में अन्तर्भाव नहीं होता। EASEREEREYEESENTREESEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश।391]