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ॐ वर्षावास में रहे हुए निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थिनियों को पर्युषणा के पश्चात् अधिकरण
वाली वाणी अर्थात् हिंसा, असत्य आदि दोष से दूषित वाणी बोलना नहीं कल्पता है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी पर्युषणा के पश्चात् ऐसी अधिकरण वाली वाणी बोले, उसे इस प्रकार # कहना चाहिए- हे आर्य! इस प्रकार की वाणी बोलने पर आचार नहीं है। जो आप बोल रहे ॥ 卐 हैं वह अकल्पनीय है, आपका ऐसा आचार नहीं है। जो निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थिनी पर्युषणा के है
पश्चात् अधिकरण वाली वाणी बोलता है, उसे गच्छ से बाहर कर देना चाहिए।
19571 अप्पत्तियं जेण सिया, आसु कुप्पेज वा परो। सव्वसो तं न भासेज्जा भासं अहियगामिणिं ॥ (47) नक्खत्तं सुमिणं जोगं निमित्तं मंत भेसजं । गिहिणो ते न आइक्खे भूयाहिगरणं पयं ॥ (50)
___ (दशवै. 8/835, 838) जिससे (जिस भाषा के बोलने से) अप्रीति (या अप्रतीति) उत्पन्न हो अथवा दूसरा ॥ * (सुनने वाला व्यक्ति) शीघ्र ही कुपित होता हो, ऐसी अहित करने वाली भाषा सर्वथा न.. बोले। (47)
(आत्मार्थी साधु) नक्षत्र, स्वप्न (-फल), वशीकरणादि योग, निमित्त, मन्त्र (तन्त्र, 卐 यन्त्र), भेषज आदि से सम्बन्धित अयोग्य बातें गृहस्थों को न कहे, क्योंकि ये प्राणियों के ॥ * अधिकरण- (हिंसा आदि अनिष्टकर) स्थान हैं। (50)
{958) तहेव सावजणुमोयणी गिरा,
ओहारिणी जा य परोवघाइणी। से कोह-लोह-भयसा व माणवो, न हासमाणो वि गिरं वएज्जा ॥ (54)
(दशवै. 7/385) इसी प्रकार जो भाषा सावध (पाप-कर्म) का अनुमोदन करने वाली हो, जो ॥ ॐ निश्चयकारिणी (और संशयकारिणी हो) एवं पर-उपघातकारिणी हो, उसे क्रोध, लोभ, भय,
(मान), या हास्य के वश भी (साधु या साध्वी) न बोले। (54)
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अहिंसा-विश्वकोश/383]]