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(959) अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पच्चक्खओ पडिणीयं च भासं। ओहारिणिं अप्पियकारिणिं च, भासं न भासेज सया, स पुज़ो॥ (9)
(दशवै. 9/500) जो मुनि पीठ पीछे कदापि किसी का अवर्णवाद (निन्दावचन) नहीं बोलता तथा ॐ प्रत्यक्ष में (सामने में) विरोधी (शत्रुताजनक) भाषा नहीं बोलता एवं जो निश्चयकारिणी
और अप्रियकारिणी भाषा (भी) नहीं बोलता, वह पूज्य होता है। (9)
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{960) भासाए दोसे य गुणे य जाणिया, तीसे य दुट्ठाए विवजए सया। छसु संजए सामणिए सया जए, वएज बुद्धे हियमाणुलोमियं ॥ (56)
(दशवै. 7/387) षड्जीवनिकाय के प्रति संयत (सम्यक् यतना करने वाले) तथा श्रामण्यभाव में म सदा यत्नशील (सावधान) रहने वाले प्रबुद्ध (तत्त्वज्ञ) साधु को चाहिए कि वह भाषा के म 卐 दोषों और गुणों को जान कर एवं उसमें से दोषयुक्त भाषा को सदा के लिए छोड़ दे और 卐 हितकारी तथा आनुलोमिक (सभी प्राणियों के लिए अनुकूल) वचन बोले। (56)
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बहुं सुणेइ कण्णेहिं, बहुं अच्छीहिं पेच्छइ। न य दिळं सुयं सव्वं भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ (20) सुयं वा जइ वा दिट्ठं न लवेज्जो व घाइयं । न य केणइ उवाएणं गिहिजोगं समायरे ॥ (21)
(दशवै. 8/408-409) भिक्षु कानों से बहुत कुछ सुनता है तथा आंखों से बहुत-से रूप (या दृश्य) देखता है, किन्तु सब देखे हुए और सुने हुए को कह देना साधु के लिए उचित नहीं है। (20) * यदि सुनी हुई या देखी हुई (घटना) औपघातिक (उपघात से उत्पन्न हुई या किसी 卐 का उपघात उत्पन्न करने वाली) हो तो (साधु को चाहिए कि वह किसी के समक्ष) नहीं कहे ॥ 卐 तथा किसी भी उपाय से गृहस्थोचित (कर्म का) आचरण नहीं करे। (21)
EFEREFUSEREYSIENTIFY [जैन संस्कृति खण्ड/384
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