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{713 छिन्नाछिन्नवन-पत्र-प्रसून -फलविक्रयः । कणानां दलनात् पेषाद् वृत्तिश्च वनजीविका॥
(है. योग. 3/102) जंगल में कटे हुए या नहीं कटे हुए वृक्ष के पत्ते, फूल, फल आदि को बेचना, चक्की ॥ में अनाज दल कर या पीस कर आजीविका चलाना इत्यादि वनजीविका' है। (वनजीविका में मुख्यत: वनस्पतिकाय के विघात होने की संभावना रहती है।)
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शकटानां तदंगानां घटनं खेटनं तथा । विक्रयश्चेति शकटाजीविका परिकीर्तिता ॥
(है. योग. 3/103) 卐 शकट यानी गाड़ी और उसके विविध अंग-पहिये, आरे आदि स्वयं बनाना, दूसरे से 卐 बनवाना, अथवा बेचना या बिकवाना इत्यादि व्यवसाय को 'शकट जीविका' कहा गया है। 卐
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{715) कम्मओ णं समणोवासएणं पण्णरस कम्मादाणाई जाणियव्वाइं, न समायरियव्वाइं, तं जहा-इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिजे, लक्खावाणिजे, रसवाणिजे , विसवाणिजे, के सवाणिज,
जंतपीलणकम्मे, निल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदह तलायसोसणया, म 卐 असईजणपोसणया।
(उवा. 1/51) कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादानों को जानना चाहिए, उनका + आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं
अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटीकर्म, स्फोटनकर्म, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रस-वाणिज्य, विषवाणिज्य, केशवाणिज्य, यन्त्रपीडनकर्म, निलांछन-कर्म, दवाग्निदापन, ॐ सर-हृद-तडाग-शोषण तथा असती-जन पोषण।
[कर्मादान-कर्म और आदान-इन दो शब्दों से 'कर्मादान' बना है। आदान का अर्थ ग्रहण है। कर्मादान का卐 卐 आशय उन प्रवृत्तियों से है, जिनके कारण ज्ञानावरण आदि कर्मों का प्रबल बन्ध होता है। उन कामों में बहुत अधिक
हिंसा होती है। इसलिए श्रावक के लिए वे वर्जित हैं। श्रावक को इनके त्याग हेतु स्थान-स्थान पर प्रेरणा दी गई है।) y कहा गया है कि न वह स्वयं इन्हें करे, न दूसरों से कराए और न करने वालों का समर्थन करे।
EFERENEFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEERS जैन संस्कृति खण्ड/300