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{856)
卐 भिक्खुं च खलु अपुट्ठा वा जे इमे आहच्च गंथा फुसंति, से हंता हणह卐 卐 खणह छिंदह दहह पचह आलुपह विलुपह सहसक्कारेह विप्परामुसह । ते फासे पुट्ठो धीरो अहियासए। अदुवा आयारगोयरमाइक्खे तकियाणमणेलिसं।
(आचा. 1/8/2 सू. 206) भिक्षु से पूछकर (सम्मति लेकर) या बिना पूछे ही (मैं अवश्य दे दूंगा, इस अभिप्राय से) किसी गृहस्थ द्वारा (अन्धभक्तिवश) बहुत धन खर्च करके बनाये हुए ये E (आहारादि पदार्थ), भिक्षु के समक्ष भेंट रूप में ला कर रख देने पर (जब मुनि उसे स्वीकार 卐नहीं करता), तब वह उसे परिताप देता है; वह सम्पन्न गृहस्थ क्रोधावेश में आकर स्वयं उस
भिक्षु को मारता है, अथवा अपने नौकरों को आदेश देता है कि इस (- व्यर्थ ही मेरा धन व्यय कराने वाले साधु) को डंडों आदि से पीटो, घायल कर दो, इसके हाथ-पैर आदि अंग
काट डालो, इसे जला दो, इसका मांस पकाओ, इसके वस्त्रादि छीन लो या इसे नखों से नोंच 卐 डालो, इसका सब कुछ लूट लो, इसके साथ जबर्दस्ती करो अथवा जल्दी ही इसे मार डालो,
इसे अनेक प्रकार से पीड़ित करो। उन सब दुःख स्पर्शों (कष्टों) के आ पड़ने पर, धीर । (अक्षुब्ध) रह कर मुनि उन्हें (समभाव से) सहन करे।
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1857
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अक्कोसेज्ज परो भिक्खुं न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणां तम्हा भिक्खू न संजले॥
(उत्त. 2/24) यदि कोई भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे। क्रोध करने वाला 卐 अज्ञानियों के सदृश होता है। अतः भिक्षु आक्रोश-काल में संज्वलित न हो, उबाल न खाए।
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{858) हम्ममाणो ण कुप्पेज्जा वुच्चमाणो ण संजले। सुमणो अहियासेज्जा ण य कोलाहलं करे॥
(सू.कृ. पीटे जाने पर क्रोध न करे, गाली देने पर उत्तेजित न हो, शान्तमन रह कर उन्हें सहन करे, कोलाहल न करे।
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[जैन संस्कृति खण्ड/346