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{874) पञ्चानां पापानां, हिंसादीनां मनोवच:कायैः। कृतकारितानुमोदैस्त्यागस्तु महाव्रतं महताम्॥
(रत्नक. श्रा. 72) मन, वचन, काय, तथा कृत, कारित, अनुमोदना -इन नव संकल्पों से हिंसा आदिक पांचों पापों का सर्वथा त्याग महाव्रत कहलाता है।
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{875) पंच महव्वया पण्णत्ता, तं जहा- सव्वाओ पाणातिवायाओ वेरमणं जाव 卐 (सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ के * वेरमणं,) सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं।
(ठा.5 महाव्रत पांच कहे गये हैं। जैसे1. सर्व प्रकार के प्राणातिपात (जीव-घात) से विरमण। 2. सर्व प्रकार के मृषावाद (असत्य-भाषण) से विरमण। 3. सर्व प्रकार के अदत्तादान (चोरी) से विरमण। 4. सर्व प्रकार के मैथुन (कुशील-सेवन) से विरमण । 5. सर्व प्रकार के परिग्रह से विरमण।
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{876} हिंसानृतवचश्चौर्याब्रह्मचर्यपरिग्रहात् । विरतिर्देशतोऽणु स्यात्सर्वतस्तु महद् व्रतम्॥
(ह. पु. 58/116) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और अपरिग्रह, इन पांच पापों से विरत होना व्रत है। वह व्रत 'अणुव्रत' और 'महाव्रत' के भेद से दो प्रकार का है। उक्त पापों से एकदेश-विरत होना 'अणुव्रत' है और सर्वदेश- विरत होना 'महाव्रत' है।
अहिंसा-विश्वकोश/355)