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{885) वाचित्ततनुभिर्यत्र न स्वप्रेऽपि प्रवर्तते। चरस्थिरांगिनां घातस्तदाद्यं व्रतमीरितम्॥
___(ज्ञा. 8/7/479) जहां मन-वचन-काय से त्रस और स्थावर जीवों का घात स्वप्न में भी न हो, उसे आद्यव्रत (प्रथम महाव्रत-अहिंसा) कहते हैं।
{886) तत्र प्राणवियोगकरणं प्राणिनः प्रमत्तयोगात्प्राणवधस्ततो विरतिरहिंसाव्रतम्।
(भग. आ. विजयो. 423) प्रमादयुक्त मनो-भाव को रखते हुए किसी प्राणी के प्राणों का वियोग करना ‘हिंसा' है और उससे विरति 'अहिंसा' व्रत है।
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गंथं परिण्णाय इहऽज वीरे, सोयं परिण्णाय चरेज्ज दंते। उम्मुग्ग लधु इह माणवेहिं, णो पाणिणं पाणे समांरभेज्जासि॥
(आचा. 1/3/2 सू. 121) ॥ हे वीर! इस लोक में ग्रन्थ आंतरिक परिग्रह (कषायादि) को ज्ञपरिज्ञा से जानकर म प्रत्याख्यान परिज्ञा से आज ही अविलम्ब छोड़ दे, इसी प्रकार (संसार के) स्रोत-विषयों को 卐 भी जान कर दान्त (इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला) बन कर संयम में विचरण कर। ॐ यह जान कर कि यहीं (मनुष्य-जन्म में) मनुष्यों के द्वारा ही उन्मजन (संसार-सिन्धु से
तरने) या कर्मों से उन्मुक्त होने का अवसर मिलता है, मुनि प्राणियों के प्राणों का समारम्भ॥ संहार न करे।
{888) पढमे भंते! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं। सव्वं भंते ! पाणाइवायंभ 卐 पच्चक्खामि, से सुहुमं वा, बायरं वा, तसं वा, थावरं वा, ...नेव सयं पाणे अइवाएजा, 卐
नेवऽनेहिं पाणे अइवायावेज्जा, पाणे अइवायंते वि अन्ने न समणुजाणेजा। जावजीवाए
तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं, न करेमि, न कारवेमि, करेंते पि अन्नं न म समणुजाणामि।
REFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET (जैन संस्कृति खण्ड/B58