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(अहिंसा महाव्रत)
{881) कायेंदियगुणमग्गणकुलाउजोणीस सव्वजीवाणं। णाऊण य ठाणादिसु हिंसादिविवजणमहिंसा॥
(मूला. 1/5) काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मार्गणा, कुल, आयु और योनि-इन दृष्टियों से सभी जीवों को जान करके कायोत्सर्ग (ठहरने) आदि में हिंसा आदि का त्याग करना अहिंसा महाव्रत है।
(882) हिंसाविरइ अहिंसा।
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हिंसा का त्याग 'अहिंसा महाव्रत' है।
{883) न यत् प्रमादयोगेन जीवित-व्यपरोपणम्। त्रसानां स्थावराणां च तदहिंसाव्रतं मतम्॥
(है. योग. 1/20) प्रमाद के योग से त्रस या स्थावर जीवों के प्राणों का हनन किये जाना-इसका त्याग, प्रथम 'अहिंसा' महाव्रत माना गया है।
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{884 कायेन्द्रियगुणस्थानजीवस्थानकुलायुषाम् । भेदान् योनिविकल्पांश्च निरूप्यागमचक्षुषा॥ क्रियासु स्थानपूर्वासु वधादिपरिवर्जनम्। षण्णां जीवनिकायानामहिंसाद्यं महाव्रतम्॥
(ह.पु. 2/16-117) काय, इन्द्रियां, गुणस्थान, जीवस्थान, कुल और आयु के भेद तथा योनियों के नाना विकल्पों-भेदों का आगमरूपी चक्षु के द्वारा अच्छी तरह अवलोकन कर बैठने-उठने आदि * क्रियाओं में छह काय के जीवों के वध-बन्धनादिक का त्याग करना प्रथम अहिंसा महाव्रत' 卐 कहलाता है। EREFREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश।3571