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यथा
(912)
(ह. पु. 58/123)
बुद्धिमान् मनुष्यों को व्रतों की स्थिरता के लिए यह चिन्तवन भी करना चाहिए कि हिंसादि पाप करने से इस लोक तथा परलोक में नाना प्रकार के कष्ट होते हैं और पापबन्ध होता है।
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हिंसादिष्विह चामुष्मिन्नपायावद्यदर्शनम् । व्रतस्थैर्यार्थमेवात्र भावनीयं मनीषिभिः ॥
(913)
हिंसादयो दुःखमेवेति भावयितव्याः । कथं हिंसादयो दुःखम् । दुःखकारणत्वात् ।
" अन्नं वै प्राणाः" इति । कारणस्य कारणत्वाद्वा । यथा " धनं प्राणा: " इति ।
धनकारण- मन्नपानमन्नपानकारणाः प्राणा इति । तथा हिंसादयोऽसद्वेद्यकर्मकारणम् ।
असद्वेद्यकर्म च दुःखकारणमिति दुःखकारणे दुःखकारणकारणे वा दुःखोपचारः ।
तदेते दुःखमेवेति भावनं परात्मसाक्षिकमवगन्तव्यम् । ननु च तत्सर्वं न दुःखमेव; विषयरतिसुखसद्भावात् । न तत्सुखम्; वेदनाप्रतीकारत्वात्कच्छूकण्डूयनवत् ।
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[ जैन संस्कृति खण्ड /366
सेवन में सुख उपलब्ध होता है? समाधान- विषयों के सेवन से जो सुखाभास होता है वह
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सुख नहीं है, किन्तु दाद को खुजलाने के समान केवल वेदना का प्रतीकार मात्र है।
(सर्वा.7/10/681)
प्र६ ६ ६ ६ ६ ६ ६ ६
हिंसादिक दु:ख ही हैं - ऐसा चिन्तन करना चाहिए। शंका - हिंसादिक दुःख कैसे
! हैं ? समाधान - दुःख के कारण होने से । यथा- 'अन्न ही प्राण है।' अन्न प्राणधारणका कारण है, पर कारण में कार्य का उपचार करके जिस प्रकार अन्न को ही प्राण कहते हैं। या कारण का कारण होने से हिंसादिक दुःख हैं। यथा-' धन ही प्राण हैं।' यहां अन्नपान का कारण धन
है और प्राण का कारण अन्नपान है। इसलिए जिस प्रकार धन को प्राण कहते हैं उसी प्रकार हिंसादिक ‘असाता वेदनीय' कर्म के कारण हैं और असाता वेदनीय दुःख का कारण है, इसलिए दुःख के कारण या दुःख के कारण के कारण हिंसादिक में दुःख का उपचार है।
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शंका- ये हिंसादिक सब सब केवल दुःख ही हैं, यह बात नहीं है, क्योंकि विषयों के
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