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से गामे वा नगरे वा, गोयरग्गगओ मुणी ।
चरे मंदमणुव्विग्गो अव्वक्खित्तेण चेयसा ॥ (2)
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(दशवै. 5/84 )
ग्राम या नगर में गोचराग्र के लिए प्रस्थित ( निकला हुआ) मुनि अनुद्विग्न और
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अव्याक्षिप्त (एकाग्र = स्थिर) चित्त से धीमे-धीमे चले। (2)
(940) पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए ।
हिंसेज्ज पाणभूयाई, उसे अदुव थावरे ॥ (5)
हुआ प्राणियों और भूतों- त्रस या स्थावर जीवों की हिंसा कर सकता है। (5)
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(साधु या साध्वी) उन गड्ढे आदि से गिरता हुआ या फिसलता (स्खलित होता)
(दशवै. 5/87 )
(941)
अट्ठ सुहुमाई पेहाए जाई जाणित्तु संजए ।
दयाहिगारी भूसु आस चिट्ठ सए हि वा ॥ (13)
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(942)
卐 से भिक्खू वा गामाणुगामं दूइजमाणे पुरओ जुगमायं पेहमाणे दट्ठूण तसे
संयमी (यतनावान् साधु) जिन्हें जान कर (ही वस्तुतः ) समस्त जीवों के प्रति दया
(दशवै. 8 / 401)
का अधिकारी बनता है, उन आठ प्रकार के सूक्ष्मों (सूक्ष्म शरीर वाले जीवों) को भलीभांति
देखकर ही बैठे, खड़ा हो अथवा सोए ।
पाणे उद्धट्टु पादं रीएज्जा, साहट्टु, पादं रीएज्जा, वितिरिच्छं वा पाद एज्जा,
कट्टु
सति परक्कमे संजयामेव परक्कमेज्जा, णो उज्जुयं गच्छेज्जा, ततो संजयामेव गामाणुगामं
दुइज्जेज्जा ।
सेभिक्खू वा गामाणुगामं दूइज्जमाणे, अंतरा से पाणाणि वा बीयाणि वा
[ जैन संस्कृति खण्ड /376
हरियाणि वा उदए वा मट्टिया वा अविद्धत्था, सति परक्कमे जाव णो उज्जुयं गच्छेजा, ततो संजयामेव गामाणुगामं दूइजेज्जा ।
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( आचा. 2/3/1 सू. 469-470 )
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