________________
YESTEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEM ईरियासमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।
(प्रश्र. 2/1/सू.113) पांच महाव्रतों-संवरों में से प्रथम महाव्रत की ये- आगे कही जाने वाली-पांच भावनाएं प्राणातिपातविरमण अर्थात् अहिंसा महाव्रत की रक्षा के लिए हैं।
खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारहितता गुणयोग को जोड़ने 卐 वाली तथा गाड़ी के युग (जूवे) प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से अर्थात् लगभग चार ॐ हाथ आगे की भूमि पर दृष्टि रख कर निरन्तर कीट, पतंग, त्रस, स्थावर जीवों की दया में
तत्पर होकर फूल, फल छाल, प्रवाल-पत्ते-कोंपल-कंद, मूल, जल, मिट्टी, बीज एवं
हरितकाय- दूब आदि को (कुचलने से) बचाते हुए, सम्यक् प्रकार से-यतना के साथ 卐 चलना चाहिए। इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय की समस्त अर्थात् किसी भी प्राणी क की हीलना- उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, निन्दा नहीं करनी चाहिए, गर्दा नहीं करनी चाहिए।
उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए, उनका छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन नहीं करना चाहिए, मैं उन्हें व्यथित नहीं करना चाहिए। इन पूर्वोक्त जीवों को लेश मात्र भी भय या दुःख नहीं म पहुंचाना चाहिए। इस प्रकार (के आचरण)से साधु ईर्यासमिति में मन, वचन, काय की की प्रवृत्ति से भावित होता है। तथा शबलता (मलिनता) से रहित, संक्लेश से रहित, अक्षतनिरतिचार चारित्र की भावना से युक्त साधक संयमशील व अहिंसक सुसाधु कहलाता है।
{946) बिइयं च मणेण पावएणं पावगं अहम्मियं दारुणं णिस्संसं वह-बंधपरिकिलेसबहुलं भय-मरण-परिकिलेससंकिलिठं ण कयावि मणेण पावएणं पावगं 卐 किं चि वि झायव्वं । एवं मणसमिइ-जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।.. .
(प्रश्न. 211/सू.114) . दूसरी भावना मनःसमिति है। पापमय, अधार्मिक-धर्मविरोधी, दारुण-भयानक, ॥ नृशंस- निर्दयतापूर्ण, वध, बन्ध और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं क्लेश से 卐 संक्लिष्ट-मलिन ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार है
(के आचरण) से-मन:समिति की प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित-वासित होती है तथा : निर्मल, संक्लेशरहित, अखण्ड निरतिचार चारित्र की भावना से युक्त साधक संयमशील व म अहिंसक सुसाधु कहलाता है। REFERREYESEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश/3791